पद १७१


॥ १७१ ॥
कान्हरदास संतनि कृपा हरि हिरदै लाहो लह्यो॥
श्रीगुरु सरनै आय भक्ति मारग सत जान्यो।
संसारी धर्महि छाँड़ि झूँठ अरु साँच पिछान्यो॥
ज्यों साखाद्रुम चंद्र जगत सों यहि बिधि न्यारो।
सर्वभूत समदृष्टि गुननि गँभीर अति भारो॥
भक्त भलाई बदत नित कुबचन कबहूँ नहिं कह्यो।
कान्हरदास संतनि कृपा हरि हिरदै लाहो लह्यो॥

मूलार्थश्रीकान्हरदासजी महाराजने सन्तोंकी कृपासे हृदयमें श्रीहरिको पधराकर भगवान्‌की प्राप्तिका दिव्य लाभ प्राप्त कर लिया। कान्हरदासजीने श्रीगुरुदेवकी शरणमें जाकर भक्तिके मार्गको सत अर्थात् वास्तविक जाना। उन्होंने संसारके धर्मोंको छोड़कर झूठ और सत्य पहचान लिया। वे जगत्‌से इसी प्रकार दूर रहते थे, जैसे वृक्षकी शाखापर चन्द्रमा। दूरसे देखनेमें लगता है कि चन्द्रमा वृक्षकी शाखासे चिपके हुए हैं, परन्तु वास्तवमें शाखासे वे बहुत दूर हैं। उसी प्रकार लोगोंके देखनेमें कान्हरदासजी संसारसे चिपके हुए दिखते थे परन्तु वे संसारसे बहुत दूर थे। सर्वभूत समदृष्टि अर्थात् संपूर्ण भूतोंके प्रति उनकी दृष्टि समान थी। वे गुणोंमें गम्भीर और बहुत बड़े भारी व्यक्तित्व वाले संत थे। उनके मुखपर भक्तोंकी भलाई ही विराजती थी, अर्थात् वे निरन्तर भक्तोंके भलेपनकी ही चर्चा करते थे। कभी उन्होंने कुवचन नहीं कहा अर्थात् संसारके संबन्धमें कोई बातचीत ही नहीं की।