॥ १६५ ॥
भक्तन हित भगवत रची देही माधव ग्वाल की॥
निसिदिन यहै विचार दास जेहिं बिधि सुख पावैं।
तिलक दाम सों प्रीति हृदय अति हरिजन भावैं॥
परमारथ सों काज हिए स्वारथ नहिं जानै।
दसधा मत्त मराल सदा लीला गुन गानै॥
आरत हरिगुन सील सम प्रीति रीति प्रतिपाल की।
भक्तन हित भगवत रची देही माधव ग्वाल की॥
मूलार्थ – भगवत अर्थात् भगवान्ने भक्तोंका हित करनेके लिये ही माधवग्वालजीके शरीरकी रचना की थी। वे जन्मना ब्राह्मण थे परन्तु भगवान्की गोचारण लीलाका चिन्तन करते-करते उन्होंने अपना नाम माधवग्वाल रख लिया था – माधवका ग्वाल। माधवग्वालजी निसिदिन अर्थात् रात-दिन यही विचार करते थे कि भगवान्के दास जिस प्रकार सुख पावैं वही करना चाहिये। उन्हें तिलक और कण्ठीसे बहुत प्रेम था और हृदयमें हरिजन बहुत भाते थे। परमारथसों काज हिए स्वारथ नहिं जानै अर्थात् माधवग्वालजीका परमार्थसे ही कार्य था अर्थात् वे संसारसागरसे परे मोक्षका ही चिन्तन करते रहते थे, वे अपने हृदयमें स्वार्थको कभी लाए ही नहीं। वे दसधा अर्थात् प्रेमलक्षणा भक्तिमें हंसकी भाँति मत्त रहते थे, और जिस प्रकार हंस मोती चुगता है उसी प्रकार वे सदैव भगवान्की लीला और भगवान्के गुणगानका ही चिन्तन करते थे, और उन्हींको गाते रहते थे। माधवग्वालजी भगवान्का गुण सुननेके लिये अत्यन्त आर्त रहते थे। उन्होंने शील, शम और प्रीतिकी रीति – इन सबका पूर्णरूपसे प्रतिपालन किया था। इस प्रकार भगवान्ने भक्तोंके ही हितके लिये माधव ग्वालके शरीरकी रचना की थी।