पद १६४


॥ १६४ ॥
जीवत जस पुनि परमपद लालदास दोनों लही॥
हृदय हरीगुन खान सदा सतसँग अनुरागी।
पद्मपत्र ज्यों रह्यो लोभ की लहर न लागी॥
विष्णुरात सम रीति बघेरे त्यों तन त्याज्यो।
भक्त बराती बृंद मध्य दूलह ज्यों राज्यो॥
खरी भक्ति हरिषाँपुरै गुरु प्रताप गाढ़ी रही।
जीवत जस पुनि परमपद लालदास दोनों लही॥

मूलार्थश्रीलालदासजीने अपने जीवनमें संतसेवाका यश प्राप्त किया और शरीर त्याग करके परमपद प्राप्त किया। इस प्रकार यश और परमपद – ये दोनों लाभ लालदासजीने प्राप्त कर लिये। उनका हृदय हरी (हरी शब्द यहाँ द्विवचनमें प्रयुक्त है, अर्थात् हरि श्रीकृष्ण और हरि श्रीराधा) अर्थात् राधा­कृष्णके गुणोंकी खान था। वे सदैव सत्संगमें अनुराग रखते थे। लालदासजी संसारमें उसी प्रकार रहे, जैसे जलमें कमलका पत्र रहता है। अर्थात् जैसे जलसे कमलका पत्र लिप्त नहीं होता, जल उसे डुबा नहीं पाता, उसी प्रकार लालदासजीको संसारका प्रपञ्च डुबा नहीं पाया। उनके हृदयमें लोभकी लहर नहीं लगी अर्थात् लोभकी तरङ्गसे वे कभी प्रभावित नहीं हुए। लालदासजीकी रीति विष्णुरात अर्थात् परीक्षित्‌जी जैसी थी। परीक्षित्‌जीका नाम ही विष्णुरात है, यथा तस्मान्नाम्ना विष्णुरातः (भा.पु. १.१२.१७)। जिस प्रकार परीक्षित्‌जीने भागवत­श्रवण करके तुरन्त शरीर छोड़ दिया था, उसी प्रकार बघेरे ग्राममें भागवत सुनते-सुनते लालदासजीने शरीर छोड़ दिया था। जिस प्रकार बरातियोंके मध्यमें दूल्हा सुशोभित होता है, उसी प्रकार लालदासजी वैरागी संतवृन्दोंके मध्यमें दूल्हेकी भाँति सुशोभित होते थे। हरिषापुर नामक अपने गुरुदेवके स्थानमें उन्होंने खरी अर्थात् पवित्र प्रेमलक्षणा भक्तिको गुरुदेवके प्रतापसे ही दृढ़तासे ग्रहण किया था।