पद १६३


॥ १६३ ॥
सोति श्लाघ्य संतनि सभा द्वितिय दिवाकर जानियो॥
परम भक्ति परताप धरमध्वज नेजाधारी।
सीतापति को सुजस बदन सोभित अति भारी॥
जानकिजीवन चरन सरन थाती थिर पाई।
नरहरि गुरु परसाद पूत पोते चलि आई॥
राम उपासक छाप दृढ़ और न कछु उर आनियो।
सोति श्लाघ्य संतनि सभा द्वितिय दिवाकर जानियो॥

मूलार्थ – संतोंकी सभामें श्लाघ्य अर्थात् प्रशंसनीय श्रोत्रिय दिवाकरजीको दूसरा सूर्य ही समझना चाहिये, और दूसरा सूर्य समझा जाता था। संतोंकी सभामें दिवाकरजीका सम्मान था। दिवाकरजीने परम प्रेमाभक्तिके प्रतापसे वैष्णव­धर्म­ध्वजके दण्डको धारण किया था, नेजाका अर्थ है दण्ड। दिवाकर श्रोत्रियजीके मुखपर सीतापति भगवान् श्रीरामका विशाल सुयश शोभित रहा करता था, अर्थात् अपने मुखसे वे सतत भगवान् श्रीसीतापति रामचन्द्रजीके सुयशका गान किया करते थे। जानकीपति जानकीजीवन श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलकी शरणागति ही उन्होंने स्थिर थातीके रूपमें पाई थी अर्थात् पूर्वजों द्वारा धरोहर प्राप्त की थी, और नरहर्यानन्द गुरुदेवके प्रसादसे यह परम्परा उनके पुत्र और पौत्रों तक चली आई। उनकी रामोपासक दृढ़ छाप थी। वे और किसी बातको भी अपने हृदयमें नहीं धारण करते थे, केवल श्रीसीता­रामजीकी उपासना करते थे।