पद १६२


॥ १६२ ॥
सखा स्याम मन भावतो गंग ग्वाल गंभीरमति॥
स्यामाजू की सखी नाम आगम बिधि पायो।
ग्वाल गाय ब्रज गाँव पृथक नीके करि गायो॥
कृष्णकेलि सुख सिंधु अघट उर अंतर धरई।
ता रसमें नित मगन असद आलाप न करई॥
ब्रज बास आस ब्रजनाथ गुरु भक्तचरन अति अननि गति।
सखा स्याम मन भावतो गंग ग्वाल गंभीरमति॥

मूलार्थगंगग्वालजी भगवान् श्याम­सुन्दर कृष्ण­चन्द्रजीके मनभावते मित्र थे, मनको अच्छे लगनेवाले सखा थे। उनकी मति अर्थात् बुद्धि अत्यन्त गम्भीर थी। उन्होंने गौतमीय­तन्त्र जैसे आगमग्रन्थमें श्यामाजूकी सखियोंका नाम प्राप्त किया था, अर्थात् आगमविधिसे ढूँढ-ढूँढकर राधाजीकी आठ सखियों – ललिता, विशाखा, चित्रा, इन्दुलेखा, चम्पकलता, रङ्गदेवी, सुदेवी और तुङ्गविद्या – इनके नामका पता लगाया और इनकी यूथेश्वरियोंके नामका पता लगाया जिनमें चन्द्रावली आदि विराजमान हैं, और इन सबका वर्णन किया। इसी प्रकार गंगग्वालजीने भगवान्‌के ग्वालों, गौओं और व्रजके गाँवोंका भी नाम­निर्धारण करके इन्हें पृथक्-पृथक् करके भली-भाँति गाया। गंगग्वालजी श्रीकृष्ण भगवान्‌की भिन्न-भिन्न बाल­क्रीडाओं, पौगण्ड­क्रीडाओं और कैशोर­क्रीडाओंके सुखके महासागरको, जो कभी भी समाप्त नहीं होता, अपने हृदयमें धारण करते थे। उसी रसमें वे निरन्तर मग्न रहा करते थे। वे कभी असत् अर्थात् व्यर्थका आलाप नहीं करते थे, अन्तरङ्ग भावमें रहते थे, और किसीसे निरर्थक बातचीत नहीं करते थे। गंगग्वालजी व्रजमें वास करते थे। उनके हृदयमें व्रजनाथ श्रीकृष्ण­चन्द्रजी, गुरुदेव एवं भगवान्‌के भक्तोंके चरणकी धूलिके प्रति अनन्य गति थी अर्थात् उन्होंने इन तीनोंका अनन्य आश्रय लिया था। गंगग्वालजीके तीन आश्रय थे – भगवान् कृष्ण, गुरुदेव, और भगवान्‌के भक्तोंके चरणकी धूलि।