पद १६१


॥ १६१ ॥
गोबिंदचंद्र गुन ग्रथन को खड्गसेन बानी बिसद॥
गोपि ग्वाल पितु मातु नाम निरनय किय भारी।
दान केलि दीपक प्रचुर अति बुद्धि बिचारी॥
सखा सखी गोपाल काल लीला में बितयो।
कायथ कुल उद्धार भक्ति दृढ़ अनत न चितयो॥
गौतमी तंत्र उर ध्यान धरि तन त्याग्यो मंडल सरद।
गोबिंदचंद्र गुन ग्रथन को खड्गसेन बानी बिसद॥

मूलार्थ – गोविन्दचन्द्र भगवान्‌के गुणोंका ग्रथन अर्थात् वर्णन करनेके लिये श्रीखड्गसेनजीकी वाणी विशद अर्थात् अत्यन्त उज्जवल और स्पष्ट थी। खड्गसेनजीने गोपियों-ग्वालोंके माता-पिताके नामका निर्णय किया, जो कार्य भारी अर्थात् बहुत बड़ा था। उन्होंने दान­केलि­दीपक जैसा दिव्य काव्य-ग्रन्थ भी लिखा, और उसमें प्रचुर मात्रामें अपनी बुद्धिका विचार किया अर्थात् परिचय दिया। गोपाल भगवान्‌की सखियों और सखाओंकी लीलामें ही उन्होंने अपने काल समयको बिताया। खड्गसेनजी कायस्थ­कुलमें जन्मे थे, इसलिये उन्होंने कायस्थ­कुलका उद्धार कर दिया। उनके मनमें दृढ़ भक्ति थी। उन्होंने भगवद्भक्तिके अतिरिक्त अनत अर्थात् अन्य मार्गोंकी ओर देखा भी नहीं। गौतमीय­तन्त्रके अनुसार रासमण्डलका ध्यान करके भावनामें भगवान्‌के शारदीय रासमण्डलमें ही उन्होंने अपने शरीरको छोड़ दिया, अर्थात् मानसी भावनामें भगवान्‌के शारदीय रासमण्डलका ध्यान करते-करते भगवान्‌की मूर्तिको निहारकर प्रिया-प्रियतमके चरणोंमें उन्होंने अपने प्राणको न्यौछावर कर दिया। उनकी मृत्युके लिये कालको नहीं आना पड़ा, उन्होंने स्वयं भगवान्‌के चरणोंमें ही अपनेको समर्पित कर दिया।