पद १६०


॥ १६० ॥
कठिन काल कलिजुग्ग में करमैती निकलँक रही॥
नश्वरपति रति त्यागि कृष्णपद सों रति जोरी।
सबै जगत की फाँसि तरकि तिनुका ज्यों तोरी॥
निर्मल कुल काँथड़्या धन्य परसा जिहिं जाई।
बिदित बृँदाबन बास संत मुख करत बड़ाई॥
संसार स्वाद सुख बांत करि फेर नहीं तिन तन चही।
कठिन काल कलिजुग्ग में करमैती निकलँक रही॥

मूलार्थ – कठिन कालसे युक्त अर्थात् कराल कालसे संपन्न इस कलियुगमें भी करमैती बाई निष्कलङ्क रहीं। उन्होंने नाशवान् पतिके प्रेमको छोड़कर नित्यपति श्रीकृष्ण­चन्द्रजीके चरणोंमें अपनी रतिको जोड़ लिया था, और संपूर्ण जगत्‌की फाँसि अर्थात् बन्धनको भगवत्प्रेमका तर्क करके उछलकर तिनकेके समान तोड़ डाला था। उनका काँथड़िया कुल अत्यन्त निर्मल था। वे परशुरामजी धन्य थे, जिन्होंने इनको पुत्री रूपमें जन्म दिया था। करमैतीजी वृन्दावनमें निवास करती थीं, यह सबको विदित था और संतोंने अपने मुखसे उनकी बड़ाई की थी। सांसारिक विषयोंके भोगोंसे प्राप्त होने वाले सभी सुखोंको इन्होंने वमनकी भाँति त्याग दिया, और फिर उनकी ओर कभी मुड़कर नहीं देखा।

करमैतीबाई शेखावत वंशके पुरोहित परशुरामजीकी बेटी थीं। विवाहके पश्चात् जब उनके पति गौना करनेके लिये आ रहे थे तभी उन्होंने रातमें अपना घर छोड़ दिया और वे चल पड़ीं। सब लोग उन्हें ढूँढने निकले। उन्होंने जब देखा कि घुड़सवार उन्हें पकड़ने आ रहे हैं, तब मार्गमें मरे हुए एक ऊँटके कङ्कालमें उन्होंने अपनेको छिपा लिया अर्थात् विश्वकी दुर्गन्धसे उन्हें वह दुर्गन्ध कम लगी। वे भगवद्भजन करती रहीं और तीन दिन तक ऊँटके कङ्कालमें पड़ी रहीं। जब घुड़सवार चले गए, तब वे निकलीं। उन्हें कुछ तीर्थयात्री मिल गए, जिनके साथ वे गङ्गाजी आईं। उन्होंने गङ्गाजीमें स्नान किया और अपने संपूर्ण आभूषणोंका दान दे दिया। फिर वे वृन्दावन चली आईं और उन्होंने वृन्दावनमें निवास किया। जब उनके पिता परशुरामजी वृन्दावन आए तो करमैतीजीने उन्हें समझा-बुझाकर एक विग्रह देकर भेज दिया। इस प्रकार करमैतीजीने कठिन काल वाले कलियुगमें भी अपनेको निष्कलङ्क रखा। श्रीकरमैती माताकी जय!