॥ १५९ ॥
रस रास उपासक भक्तराज नाथ भट्ट निर्मल बयन॥
आगम निगम पुरान सार सास्त्रन जु बिचार्यो।
ज्यों पारो दै पुटहिं सबनि को सार उधार्यो॥
रूप सनातन जीव भट्ट नारायन भाख्यो।
सो सर्वस उर साँच जतन करि नीके राख्यो॥
फनी बंस गोपाल सुव रागा अनुगा को अयन।
रस रास उपासक भक्तराज नाथ भट्ट निर्मल बयन॥
मूलार्थ – श्रीनाथभट्टजी रस और रासके उपासक थे। उनकी वाणी बहुत निर्मल थी। उन्होंने आगम अर्थात् तन्त्र, निगम अर्थात् वेद और पुराण – इन शास्त्रोंके सारतत्त्वका विचार किया था। जिस प्रकार दो पारोंके संपुटमें स्वयं औषधियाँ प्रकट हो जाती हैं, उसी प्रकार उन्होंने अपने दो पाटों अर्थात् भजन और शास्त्रज्ञानके संपुटमें सभी शास्त्रोंके सारको उद्धृत किया था। श्रीरूपगोस्वामीजी, श्रीसनातनगोस्वामीजी, श्रीजीवगोस्वामीजी और श्रीनारायणभट्टजीने जो कुछ कहा, उसको उन्होंने सर्वस्व रूपमें मानकर हृदयमें सञ्चित किया और यत्न करके हृदयमें धारण भी किया। इस प्रकार फणीवंशमें उत्पन्न गोपालजीके पुत्र नाथभट्टजी रागानुगा भक्तिके अयन अर्थात् घर ही थे।