पद १५८


॥ १५८ ॥
कील्ह कृपा कीरति बिसद परम पारषद शिष प्रगट॥
आसकरन रिषिराज रूप भगवान भक्ति गुर।
चतुरदास जग अभै छाप छीतर जु चतुर बर॥
लाखै अद्भुत रायमल खेम मनसा क्रम बाचा।
रसिक रायमल गौर देवा दामोदर हरि रँग राचा॥
सबै सुमंगल दास दृढ़ धर्मधुरंधर भजन भट।
कील्ह कृपा कीरति बिसद परम पारषद शिष प्रगट॥

मूलार्थ – श्रीकील्हदेवजीकी कृपासे निर्मल कीर्ति वाले सभी शिष्य भगवान्‌के परम पार्षदके रूपमें प्रकट हुए। इनमें थे – (१) आशकरणजी, जो साक्षात् ऋषिराज रूप थे, और जो भगवान्, भक्ति और गुरुके प्रति आस्था रखते थे (२) चतुरदासजी, जिनकी संसारमें अभय छाप थी अर्थात् जो निर्भय थे (३) छीतरजी, जो चतुरोंमें श्रेष्ठ थे (४) लाखैजी (५) अद्भुत रायमलजी (६) खेमजी, जो मन, वाणी और शरीरसे भगवान्‌के प्रति समर्पित थे (७) रसिक रायमलजी (८) गौरजी (९) देवाजी तथा (१०) दामोदरजी, जो भगवान्‌के रङ्गमें रँग गए थे। ये सभी सुमङ्गल रूप थे, दृढ़ दास थे अर्थात् दृढ़तासे भगवान्‌के दास्यका पालन करते थे, धर्मके धुरन्धर थे और भजनमें वीर थे।