पद १५६


॥ १५६ ॥
हरीदास भक्तनि हित धनि जननी एकै जन्यो॥
अमित महागुन गोप्य सारवित सोई जानै।
देखत को तुलाधार दूर आसै उनमानै॥
देय दमामौ पैज बिदित बृंदाबन पायो।
राधाबल्लभ भजन प्रगट परताप दिखायो॥
परम धर्म साधन सुदृढ़ कामधेनु कलिजुग(में) गन्यो।
हरीदास भक्तनि हित धनि जननी एकै जन्यो॥

मूलार्थ – उस माताको अनेक धन्यवाद हैं, जिन्होंने भक्तोंके लिये एकमात्र श्रीहरिदासजीको उत्पन्न किया। हरिदासजीमें ऐसे असंख्य गुण थे, जो गोपनीय थे। उनको सारवेत्ता अर्थात् जो भगवत्तत्त्वका जानने वाला होता था, वही जान पाता था। देखनेमें वे तुलाधार थे अर्थात् तराजू लेकर तोल-तोलकर आटा, चावल, दाल बेचने वाले बनिया थे। परन्तु वे दूर-दूर तक आशयोंका अनुमान लगा लेते थे अर्थात् उनका आशय अत्यन्त दूरगामी था, जो अनुमानसे ही समझा जा सकता था। उन्होंने दमामौ अर्थात् डंका बजाकर और पैज अर्थात् प्रतिज्ञा करके यह कह दिया था कि मुझे अन्तिम समयमें वृन्दावनकी प्राप्ति होगी, भले ही मैं काशीके पास रह रहा हूँ। और वही हुआ। जब मरनेका समय आया, चारों बेटियोंको चार संतोंके यहाँ विवाहित करके हरिदासजीने कह दिया – “मुझे वृन्दावन पहुँचा दिया जाए।” वृन्दावन जाते समय मार्गमें ही उनका शरीर छूट गया। मार्गमें सब लोगोंने देखकर कहा – “अब तो ये वृन्दावन नहीं पहुँच पाएँगे।” परन्तु भगवान्‌ने उनकी प्रतिज्ञा पूरी की। उनको दिव्य शरीर मिल गया, वे वृन्दावन आए और उन्होंने सब संतोंको प्रणाम किया। अन्तमें जब उनके दामाद आए, तब उन्होंने कहा कि हरिदास तो वृन्दावन नहीं आ पाए। वृन्दावनमें सबने कहा – “वे तो उसी दिन आ गए थे।” इस प्रकार हरिदासजीने राधावल्लभ­लालजीके भजनका प्रत्यक्ष प्रताप दिखा दिया। उनके जीवनमें परमधर्मका अर्थात् भक्तिका सुदृढ़ साधन था और कलियुगके कामधेनुके समान भक्तोंमें उनकी गणना की गई।