पद १५५


॥ १५५ ॥
जसवंत भक्त जैमाल की रूड़ा राखी राठवड़॥
भक्तन सों अतिभाव निरंतर अंतर नाहीं।
कर जोरे इक पाँय मुदित मन आज्ञा माहीं॥
श्रीबृंदाबन बास कुंज क्रीडा रुचि भावै।
राधाबल्लभ लाल नित्य प्रति ताहि लड़ावै॥
परम धर्म नवधा प्रधान सदन साँचनिधि प्रेम जड़।
जसवंत भक्त जैमाल की रूड़ा राखी राठवड़॥

मूलार्थ – बड़े भाई जयमालकी भक्तिको जसवन्त राठौड़ने रूड़ा राखी अर्थात् सुन्दर प्रकारसे रखा, उसी प्रकारसे उस भक्तिका निर्वहण किया। रूड़ा शब्द राजस्थानी मारवाड़ी शब्द है। भक्तोंसे जसवन्तजीका अत्यन्त भाव रहता था, वे सतत भक्त और भगवान्‌में कोई अन्तर नहीं समझते थे। वे हाथ जोड़कर, एक पाँवसे खड़े होकर संतोंकी आज्ञाके प्रति इच्छा करते थे और संतोंकी आज्ञासे उनका मन मुदित अर्थात् प्रसन्न रहता था। जसवन्तजी श्रीवृन्दावनमें निवास करते थे। उन्हें भगवान्‌की कुञ्जक्रीडामें रुचि थी और कुञ्जक्रीडा भाती भी थी। राधा­वल्लभजी लालको वे निरन्तर लड़ाते रहते थे अर्थात् वे उनसे लाड़ लड़ाते थे, उनसे दुलार करते थे, उनसे प्रेम करते थे। इस प्रकारसे नवधा भक्तिके अनुसार भगवान्‌के परम धर्म प्रेमका वे साधन करते थे। अपने घरमें उन्होंने उस निधिको सँजोकर रखा था। भगवत्प्रेममें वे जड़ हो जाते थे।