॥ १५४ ॥
बसन बढ़्यो कुंतीबधू त्यों तूँबर भगवान के॥
यह अचरज भयो एक खाँड घृत मैदा बरषै।
रजत रुक्म की रेल सृष्टि सबही मन हरषै॥
भोजन रास बिलास कृष्ण कीरंतन कीनो।
भक्तन को बहुमान दान सबही को दीनो॥
कीरति कीनी भीमसुत सुनि भूप मनोरथ आन के।
बसन बढ़्यो कुंतीबधू त्यों तूँबर भगवान के॥
मूलार्थ – जिस प्रकार दुःशासनके खींचते समय कुन्तीजीकी पुत्रवधू द्रौपदीजीका वस्त्र बढ़ गया था, उसी प्रकार तोमर वंशमें उत्पन्न भीमसिंहजीके पुत्र श्रीभगवानदास तोमरके यहाँ भी सब कुछ बढ़ा। जब तक उनके पास सम्पत्ति थी तब तक उन्होंने संतोंकी सेवा की। वर्षमें एक बार मथुरा आकर भगवानदासजी तोमर सेवा करते थे और ब्राह्मणोंका सम्मान करते थे, भण्डारे करते थे। कुछ ब्राह्मण लोग उनसे ईर्ष्या करते थे। एक बार उनके पास कुछ नहीं रह गया अर्थात् बहुत थोड़ा धन बचा, तो उन्होंने ब्राह्मणोंको बुलाकर सब धन दे दिया और कहा – “इसमें सब कुछ आप लोग संपन्न कर लीजिये।” ईर्ष्यालु ब्राह्मणोंने उस धनसे सामग्री क्रय करके पहले तो गठरी भर-भरकर अपने लिये ले लिया, फिर अन्य ब्राह्मणोंको बुलाकर बाँटने लगे जिससे कि भगवानदास तोमरजीका अपमान हो जाए। परन्तु वहाँ तो भगवान्ने एक लीला कर दी। यह अचरज भयो यह एक आश्चर्य हुआ कि उत्सवमें खाँड अर्थात् देसी चीनी, घी और मैदेकी वर्षा होने लगी। रजत अर्थात् चाँदी, रुक्म अर्थात् सोना – दोनों चाँदी-सोनेकी रेल हो गई अर्थात् समूह-का-समूह लग गया, ढेर-की-ढेर लग गई। यह देखकर सारी सृष्टि मनमें अत्यन्त प्रसन्न हुई। अब भगवान्के कीर्तन, भोजन, रासलीला – नाना प्रकारके उत्सव होने लगे अथवा भगवान्के कीर्तनमें सबका भोजन, रासलीला – अनेकों प्रकारके उत्सव होने लगे। भक्तोंका बहुत सम्मान तोमरजीने किया, सबको दान दिया। भीमसिंहजीके पुत्रने ऐसी कीर्ति की कि जिसको सुनकर अन्य राजाओंके मनमें केवल मनोरथ ही होता रहा, कोई कुछ कर नहीं पाया।