॥ १५३ ॥
भक्तन सों कलिजुग भले निबही नीवा खेतसी॥
आवहिं दास अनेक ऊठि आदर करि लीजै।
चरन धोय दंडवत सदन में डेरा दीजै॥
ठौर ठौर हरिकथा हृदय अति हरिजन भावैं।
मधुर बचन मुँह लाय बिबिध भाँतिन जु लड़ावैं॥
सावधान सेवा करै निर्दूषण रति चेतसी।
भक्तन सों कलिजुग भले निबही नीवा खेतसी॥
मूलार्थ – खेतसी शब्दमें श्लेष अलंकार है और इस शब्दके दो अर्थ हैं – खेतसिंहजी तथा खेत जैसी। चेतसी शब्द संस्कृतके चेतस् प्रातिपदिककी सप्तमी विभक्तिका एकवचन चेतसि है, यहाँ नाभाजीने संस्कृत शब्दका प्रयोग किया है। निर्दूषणका अर्थ है दोषरहित।
कलियुगमें भी नीवाजी और खेतसिंहजीने भक्तोंसे भली-भाँति उसी प्रकार निर्वहण किया, जिस प्रकार कृषक अपने खेतके प्रति निर्वहण करता है। उनके यहाँ अनेक दास आते थे। नीवाजी और खेतसिंहजी उठकर उनका आदर करते थे, भक्तोंके चरण धोते थे, दण्डवत् करते थे, और उन्हें अपने घरमें निवास देते थे। वे ठौर ठौर अर्थात् स्थान-स्थानपर भगवान्की कथाका आयोजन करते थे। उन्हें हृदयमें हरिजन बहुत भाते थे। मुखसे मधुर वचन बोलकर अनेक प्रकारसे नीवाजी और खेतसिंहजी संतोंको लाड़ लड़ाते थे अर्थात् उन्हें प्रसन्न करते थे, उनका दुलार करते थे। वे सावधान होकर सेवा करते थे, क्योंकि निर्दूषण रति चेतसी अर्थात् उनके चित्तमें संतों और भगवान्के प्रति दोषसे रहित रति थी अर्थात् निर्दोष प्रेम था।