पद १५२


॥ १५२ ॥
मधुपुरी महोछौ मंगलरूप कान्हर कैसौ को करै॥
चारि बरन आश्रम रंक राजा अन पावै।
भक्तन को बहुमान बिमुख कोऊ नहिं जावै॥
बीरी चंदन बसन कृष्ण कीरंतन बरषै।
प्रभु के भूषन देय महामन अतिसय हरषै॥
बिट्ठलसुत बिमल्यो फिरै दास चरनरज सिर धरै।
मधुपुरी महोछौ मंगलरूप कान्हर कैसौ को करै॥

मूलार्थमधुपुरी अर्थात् मथुरापुरीमें महोत्सव करते हुए मङ्गलरूप कान्हरदेवकी समता कौन कर सकता है? अर्थात् वे मथुरामें मङ्गलरूप थे और उनके महोत्सवकी समता कोई कर नहीं सकता था। चारों वर्ण – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, चारों आश्रम – ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास, रङ्क और राजा – सभी उनके यहाँ अन्न पाते थे। भक्तोंके प्रति उनको बहुमान अर्थात् बहुत बड़ा सम्मान था। कोई उनके यहाँसे विमुख नहीं जाता था। भगवान्‌के कीर्तनमें कान्हरजी बीरी अर्थात् ताम्बूलका बीड़ा, चन्दन और वस्त्रका वर्षण करते रहते थे अर्थात् इनको बरसाते रहते थे। वे जब कीर्तनमें मग्न होते थे, या जब कोई सुन्दर शब्दसे कीर्तन करता था, तो वे भगवान्‌के आभूषण भी दे देते थे और महामना कान्हरजी अत्यन्त प्रसन्न होते थे। विट्ठलजीके पुत्र कान्हरजी निर्मल भावसे भक्तोंके पास जाते थे और भक्तोंके चरणकी धूलिको मस्तकपर धारण करते थे।