पद १४७


॥ १४७ ॥
निरबर्त्त भए संसार तें ते मेरे जजमान सब॥
उद्धव रामरेनु परसराम गंगा ध्रूखेतनिवासी।
अच्युतकुल ब्रह्मदास बिश्राम सेषसाइ के बासी॥
किंकर कुंडा कृष्णदास खेम सोठा गोपानँद।
जयदेव राघव बिदुर दयाल दामोदर मोहन परमानँद॥
उद्धव रघुनाथी चतुरोनगन कुंज ओक जे बसत अब।
निरबर्त्त भए संसार तें ते मेरे जजमान सब॥

मूलार्थ – नाभाजी कहते हैं कि जो संसारसे निवृत्त हो गए हैं, ऐसे भक्तजन मेरे यजमान हैं, अर्थात् मैं उनका पुरोहित हूँ। और महाराष्ट्र-कर्णाटकमें यजमान शब्दका अर्थ पति भी होता है। नाभाजीका कहना है कि जो संसारसे निवृत्त हो गए हैं, वे मेरे यजमान हैं और वे ही मेरे पोषक हैं। जैसे पति पत्नीका पोषण करता है, उसी प्रकार ये मेरा पोषण करते हैं। यहाँ दाम्पत्य­भावका तात्पर्य नहीं अपितु पोष्य­पोषक­भावका तात्पर्य है, और उचित यही है। यजमानका अर्थ है कि ये मेरे यजमान हैं, मैं उनका सेवक हूँ। प्रायः नाई आदि सामान्य सेवक भी अपने आश्रयदाताओंको यजमान ही कहा करते थे। यहाँ वही भाव देना चाहिये कि जिस प्रकार नाई आदि अपने आश्रयदाताओंको यजमान कहते हैं, उसी प्रकार ये मेरे आश्रयदाता हैं। वे हैं – (१) श्रीउद्धवजी (२) श्रीरामरेणुजी (३) श्रीपरशुरामजी और (४) ध्रुवक्षेत्रमें रहने वाले श्रीगङ्गादासजी (५) अच्युतकुलके विरक्त वैष्णव श्रीब्रह्मदासजी (६) शेषशाईके वासी श्रीविश्रामदासजी (७) कुंडामें रहने वाले श्रीकिंकरजी (८) श्रीकृष्णदासजी (९) श्रीक्षेमजी (१०) श्रीसोठाजी (११) श्रीगोपानन्दजी (१२) श्रीजयदेवजी (१३) श्रीराघवजी (१४) श्रीविदुरजी (१५) श्रीदयालजी (१६) श्रीदामोदरजी (१७) श्रीमोहनजी (१८) श्रीपरमानन्दजी (१९) श्रीरघुनाथी उद्धवजी और (२०) चतुरदास श्रीनागाजी – जो भी कुञ्ज ओकमें अर्थात् सेवाकुञ्जमें निवास करते हैं, वे सब मेरे यजमान हैं।