॥ १४५ ॥
नृतक नरायनदास को प्रेमपुंज आगे बढ़्यो॥
पद लीनो परसिद्ध प्रीति जामें दृढ़ नातो।
अच्छर तनमय भयो मदनमोहन रँग रातो॥
नाचत सब कोउ आहि काहि पै यह बनि आवै।
चित्रलिखित सो रह्यो त्रिभँग देसी जु दिखावै॥
हँड़िया सराय देखत दुनी हरिपुर पदवीको कढ़्यो।
नृतक नरायनदास को प्रेमपुंज आगे बढ़्यो॥
मूलार्थ – नारायणदास नाम वाले नर्तकका प्रेमपुञ्ज अत्यन्त आगे बढ़ चुका था। उन्होंने ऐसा प्रसिद्ध पद गानमें स्वीकारा था जिसमें भगवान्के प्रति प्रीति और भगवान्का संबन्ध दृढ़ हो जाए। हौं तो मदनमोहन रँग रातो इतनी ही स्थाई गाते-गाते वे इसके अक्षरमें तन्मय हो गए और वास्तवमें मदनमोहनके रङ्गमें रँग गए। नाचते तो सभी लोग हैं, पर नाचना किसी-किसीसे बन पड़ता है जो नारायणदासजीसे बन गया। नाचते-नाचते और हौं तो मदनमोहन रँग रातो गीत गाते-गाते उन्होंने जब भगवान्की त्रिभङ्गी तालका दर्शन कराया तो स्वयं भी उन्हें भगवान् त्रिभङ्गललित मदनमोहनजीके दर्शन हो गए। और जब देशी रागमें उन्होंने यह गीत गाया हौं तो मदनमोहन रँग रातो तब भगवान्का दर्शन करते-करते वे चित्रलिखितसे रह गए अर्थात् उनका नाचना बंद हो गया, वे स्तम्भित हो गए और हँड़िया सरायमें अर्थात् हँड़िया नामक बाजारमें (जो प्रयागसे छः कोस पूर्वमें है) सबके देखते-देखते नारायणदासजी श्रीहरिपुरकी पदवीमें चढ़ गए अर्थात् गोलोक पधार गए, भगवान्का ध्यान करते-करते उनका शरीर छूट गया।
श्रीनारायणदासजी कत्थक नृत्य करते थे और वे केवल भगवान्के समक्ष ही नृत्य करते थे। उन्होंने किसी औरके आगे नृत्य नहीं किया। एक बार एक यवन शासक मीरने उन्हें नृत्य करनेके लिये बुलाया। वे चिन्तित हो गए कि कैसे किया जाए? तब उन्होंने एक बड़ा-सा सिंहासन मँगवाया, उस सिंहासनपर तुलसी माताको पधराया, और तुलसी मातामें ही मदनमोहनजीकी भावना करके नृत्य किया।