पद १४४


॥ १४४ ॥
कीरतन करत कर सपनेहूँ मथुरादास न मंड्यो॥
सदाचार संतोष सुहृद सुठि सील सुभासै।
हस्तक दीपक उदय मेटि तम बस्तु प्रकासै॥
हरि को हिय बिश्वास नंदनंदन बल भारी।
कृष्णकलस सों नेम जगत जाने सिर धारी॥
बर्धमान गुरुबचन रति सो संग्रह नहिं छंड्यो।
कीरतन करत कर सपनेहूँ मथुरादास न मंड्यो॥

मूलार्थश्रीमथुरादासजीने भगवान्‌का कीर्तन करते हुए अपने हाथको स्वप्नमें भी संसारके लिये नहीं फैलाया। वे सदाचारी और संतोषवृत्तिवाले थे। वे सबके सुहृद् थे। वे दिव्य शील और शुभके भवन थे। जिस प्रकार हाथमें रखा हुआ दीपक अन्धकारको नष्ट कर देता है, उसी प्रकार श्रीमथुरादासजी सबकी बुद्धिको भगवद्भक्तिसे प्रकाशित कर देते थे। मथुरादासजीके हृदयमें भगवान्‌का विश्वास था, उन्हें नन्दनन्दन श्रीकृष्ण­चन्द्रजीका बल था। कृष्णकलशसे उनका नियम था, सारा संसार जानता है कि जीवनभर उन्होंने कृष्णजीका कलश सिरपर रखा था, अर्थात् कृष्णजीके लिये वे यमुनाजीसे कलश भरकर सिरपर रखकर लाते रहे। वर्धमान गुरुदेवके वचनमें उन्हें प्रेम था, गुरुदेवके वचनोंके संग्रहको उन्होंने कभी नहीं छोड़ा।