॥ १४३ ॥
पारीष प्रसिध कुल काँथड़्या जगन्नाथ सीवाँ धरम॥
रामानुज की रीति प्रीति पन हिरदै धार्यो।
संसकार सम तत्व हंस ज्यो बुद्धि विचार्यो॥
सदाचार मुनि बृत्ति इंदिरा पधति उजागर।
रामदास सुत संत अननि दसधा को आगर॥
पुरुषोत्तम परसाद तें उभै अंग पहिर्यो बरम।
पारीष प्रसिध कुल काँथड़्या जगन्नाथ सीवाँ धरम॥
मूलार्थ – बरमका अर्थ है कवच। पारीख नामसे प्रसिद्ध काँथड़िया कुलमें उत्पन्न रामदासजीके पुत्र जगन्नाथदासजी वैष्णव धर्मकी सीमा बन गए। उन्होंने श्रीरामानुजाचार्यके ही पथके अनुसार भगवान्में रीति, प्रीति और प्रतिज्ञाको हृदयमें धारण किया। हंसके ही समान सम तत्व अर्थात् पाँच तत्त्वोंकी संख्याके आधारपर जो पञ्चसंस्कार विहित हैं – माला, मुद्रा, मन्त्र, नाम और तिलक – इन पाँचों संस्कारोंको स्वीकारा। वे सदाचारसंपन्न और मुनिवृत्तिसे युक्त थे। इन्दिराजीकी पद्धति अर्थात् लक्ष्मीजीकी पद्धति (श्रीसंप्रदाय)में जगन्नाथदास उजागर थे। वे स्वयं संतवृत्तिके थे और संतोंके प्रति अनन्य दशधा भक्ति अर्थात् प्रेमा भक्तिके आगार थे – संतोंके प्रति उनकी अनन्य प्रेमाभक्ति थी। पुरुषोत्तम जगन्नाथजीके प्रसादसे उन्होंने बहिरङ्ग और अन्तरङ्ग दोनोंमें ही कवच धारण किया था, अर्थात् बाहरसे उन्हें कोई लौकिक शत्रु नहीं मार सका और भीतरसे काम, क्रोध आदि भी उन्हें समाप्त नहीं कर पाए।