पद १४२


॥ १४२ ॥
पृथ्वीराज नृप कुलबधू भक्त भूप रतनावती॥
कथा कीरतन प्रीति भीर भक्तन की भावै।
महा महोछो मुदित नित्य नँदलाल लडावै॥
मुकुँदचरन चिंतवन भक्ति महिमा ध्वज धारी।
पति पर लोभ न कियो टेक अपनी नहिं टारी॥
भलपन सबै बिशेषही आमेर सदन सुनखा जिती।
पृथ्वीराज नृप कुलबधू भक्त भूप रतनावती॥

मूलार्थ – महाराज पृथ्वीराजजीकी कुलवधू रत्नावतीजी भक्तोंकी भूप अर्थात् राजा बन गईं, अर्थात् भक्तभूमिका भी उन्होंने पालन किया। उनको भगवान्‌की कथा और भगवान्‌के कीर्तनमें बहुत प्रेम था। भक्तोंकी भीड़ उन्हें अच्छी लगती थी। वे महा­महोत्सव करती हुईं नित्य नन्दलाल श्रीकृष्णको लाड़ लड़ाती थीं अर्थात् उनसे प्रेम करती थीं। रत्नावतीजी भगवान् मुकुन्दके चरणोंका चिन्तन करती थीं। उन्होंने भक्ति रूप धर्मकी ध्वजाको सबसे ऊपर किया था। पति पर अर्थात् अपने पति माधवसिंहपर उन्होंने कभी लोभ नहीं किया अर्थात् भगवद्विमुख जानकर उनकी उपेक्षा की और अपनी टेक कभी नहीं टाली अर्थात् जो निर्णय लिया उस निर्णयको बदला नहीं। आमेरके भवनमें रहती हुईं सुनखाजीतकी पुत्री रत्नावतीजीमें संपूर्ण भद्रताएँ विशेष रूपसे विराजमान थीं अर्थात् सभी सद्गुण विराजमान थे।

रत्नावतीजीने दासीकी प्रेरणासे भगवद्भक्तिका मार्ग स्वीकारा था। वे सतत भगवान्‌की सेवामें दृढ़ रहीं। उन्होंने पतिके विरोधकी कोई चिन्ता नहीं की। यहाँ तक कि जब आमेरके राजा मानसिंहके छोटे भाई माधवसिंहने अपनी पत्नी रत्नावतीकी बातें सुनीं और उनका व्यवहार उसे अनुकूल नहीं आया, तो अपने पुत्र प्रेमसिंहजीको उसने जब कह दिया – “आओ! मुण्डी वैरागिनके बेटे,” तब यह संदेश सुनकर रत्नावतीजीने अपना सिर ही मुण्डित कर लिया और वैरागिन बन ही गईं। माधवसिंहने रत्नावतीजीको मारनेके लिये अपना सिंह खोल दिया, सिंह भी वहाँ जाकर नरसिंहकी भूमिकामें आ गया। रत्नावतीजीने उसकी पूजा की, उसे तिलक लगाया, और उसे माला पहनाई। सिंह प्रसन्न हो गया। सिंहने उनपर हिंसा नहीं की। अन्ततोगत्वा काबुलसे आते समय एक नदीमें जब माधवसिंह और मानसिंह संकटमें पड़े तो रत्नावतीका स्मरण करके ही वे उस संकटसे उबर पाए, और उन्होंने आकर रत्नावतीजीसे क्षमा माँगी।