पद १४१


॥ १४१ ॥
द्वारका देखि पालंटती अचढ़ सींवै कीधी अटल॥
असुर अजीज अनीति अगिनि में हरिपुर कीधो।
साँगन सुत नयसाद राय रनछोरै दीधो॥
धरा धाम धन काज मरन बीजाहूँ माँड़ै।
कमधुज कुटको हुवौ चौक चतुरभुजनी चाँड़ै॥
बाढ़ेल बाढ़ कीवी कटक चाँद नाम चाँड़ै सबल।
द्वारका देखि पालंटती अचढ़ सींवै कीधी अटल॥

मूलार्थ – इस छप्पयमें नाभाजीने कतिपय गुजराती शब्दोंका प्रयोग किया है। यह सूचना देनेके लिये कि चूँकि यहाँ गुजरातकी घटना है, वह भी गुजरातमें सौराष्ट्रकी, अतः उस परिस्थितिको बतानेके लिये ही उन्होंने कुछ शब्द गुजरातीके लिये हैं। जैसे – कीधी, कीधो, दीधो, बीजाहूँ, चतुरभुजनी

द्वारकापुरीको पालंटती अर्थात् नष्ट होते हुए देखकर श्रीचाँदाके वंशमें उत्पन्न हुए सींवाजीने उसे अचढ़ और अटल कर दिया, अर्थात् ऐसा कर दिया कि न तो उसपर कोई चढ़ाई कर सके और न ही उसे स्थानान्तरित कर सके। एक बार अज़ीज़खाँ नामक सेनापतिने अपनी आसुरी वृत्तिके कारण अनीति करते हुए संपूर्ण द्वारकाको घेरकर आग लगा दी। उसी समय भगवान् भक्तवत्सल रणछोड़राय द्वारकाधीशजीने छतपर चढ़कर साँगनके पुत्र सींवाजीके प्रति नयसाद अर्थात् राजनैतिक गुहार लगाई। सादका अर्थ होता है गुहार लगाना। द्वारकाधीशजीने कहा – “तुम भी राजा हो, मैं भी राजा हूँ। तुम आज मेरी सहायता करो।” यह सुनकर श्रीकामध्वजने (सींवाजीका एक नाम कामध्वज भी था) अपनी छतपरसे ललकारकर सारी सेनाको एकत्र किया, और बहुत-सी सेना लेकर अज़ीज़खाँपर आक्रमण कर दिया। वे जानते थे कि भक्तवत्सल भगवान् समर्थ हैं परन्तु मुझे यश देना चाहते हैं। धरा अर्थात् पृथ्वी, धाम अर्थात् घर। पृथ्वी, घर और धनके कारण तो बीजाहूँ अर्थात् दूसरे लोग भी मरणको स्वीकार करते हैं। परन्तु कामध्वज महाराज तो चतुर्भुज भगवान्‌के चौकमें अर्थात् विशाल मैदानमें भगवान्‌के लिये कुटको हुवो अर्थात् आसुरी सेनाका संहार करके स्वयं समाप्त हो गए। बाढ़ेल वंशमें उत्पन्न कामध्वजने विशाल सेना इकट्ठी की और चाँदाजीके नामको बलपूर्वक ऊँचा कर दिया।