पद १४०


॥ १४० ॥
नरदेव उभय भाषा निपुन पृथ्वीराज कबिराज हुव॥
सवैया गीत श्लोक बेलि दोहा गुन नवरस।
पिंगल काब्य प्रमान बिबिध बिधि गायो हरिजस॥
परदुख बिदुष शलाघ्य बचन रचना जु बिचारै।
अर्थ बित्त निर्मोल सबै सारँग उर धारै॥
रुक्मिनी लता बरनन अनूप बागीश बदन कल्यान सुव।
नरदेव उभय भाषा निपुन पृथ्वीराज कबिराज हुव॥

मूलार्थपृथ्वीराज महाराजजी ऐसे कविराज हुए जो राजा होकर भी उभय भाषा अर्थात् संस्कृत भाषा और हिन्दी भाषा दोनोंमें ही कविता करनेमें निपुण थे। उन्होंने संस्कृतमें जहाँ श्लोकोंकी रचना की, वहीं हिन्दीमें सवैया, गीत, बेलि, दोहा, आदि छन्दोंमें भी रचनाएँ कीं। उन्होंने भगवान्‌के गुणोंको नवों रसोंमें गाया। पिङ्गलकाव्यके प्रमाणके अनुसार अर्थात् पिङ्गलविधाके अनुसार अनेक प्रकारसे पृथ्वीराजजीने भगवान्‌के यशको गाया। पृथ्वीराजजी परदुख बिदुष अर्थात् दूसरोंका दुःख समझते थे। वे विचारकर अपनी जिह्वासे शलाघ्य अर्थात् आदरणीय वचनका ही उच्चारण करते थे। उन्होंने कविताके अर्थको ही अमूल्य वित्त समझ लिया था, और सभी गुणोंको वे हृदयमें उसी प्रकार धारण करते थे जैसे पुष्पके रसको भ्रमर धारण करता है। उन्होंने कृष्ण­रुक्मिणी­वेली (वेलि क्रिसन­रुकमणीरी) नामक सुन्दर ग्रन्थमें भगवान्‌का अनुपम वर्णन किया। वे कल्याण­सिंहजीके पुत्र थे और उनके मुखपर भगवती वागीशा सरस्वतीजी विराजती थीं। अथवा बागीश बदनका अर्थ है पृथ्वीराजजीके मुखपर स्वयं वागीश अर्थात् सरस्वतीजीके भी ईश्वर भगवान् विराजते थे। पृथ्वीराजजी जो कहते थे, वह सत्य हो जाता था।

पृथ्वीराजजी अपने परधाम­गमनके छः महीने पहले ही बता चुके थे कि वे उस दिनसे छः महीनेके पश्चात् यहाँ नहीं होंगे, जब श्वेत काकके दर्शन होंगे तभी वे व्रजभूमिमें ही महाप्रयाण करेंगे। और वही हुआ।

पृथ्वीराजजी मानसी सेवामें बहुत सिद्धहस्त थे, मानसी सेवामें उनका बहुत प्रवेश था। एक बार मानसी सेवा करते हुए भगवान्‌का चिन्तन करते हुए पृथ्वीराजजीने तीन दिन पर्यन्त अपने मन्दिरमें भगवान्‌के दर्शन नहीं किये। उन्हें चिन्ता होने लगी। मानसी सेवाके चौथे दिवस जब भगवान्‌के दर्शन हुए तब उन्होंने पूछा कि तीन दिन तक मन्दिरमें भगवान् नहीं थे क्या? तब सेवकोंने कहा कि मन्दिरकी स्वच्छता हो रही थी, चलविग्रह होनेके कारण भगवान्‌को दूसरे स्थानपर पधरा दिया था। एक बार पृथ्वीराजजी कहीं घोड़ेसे जा रहे थे और मानसी सेवा कर रहे थे। मानसी सेवामें वे भगवान्‌को खीर पवा रहे थे। थोड़ा-सा घोड़ा हिला तो खीर छलककर पृथ्वीराजजीके वस्त्रपर पड़ गई।