पद १३९


॥ १३९ ॥
चरन सरन चारन भगत हरिगायक एता हुआ॥
चौमुख चौरा चंड जगत ईश्वर गुन जाने।
कर्मानँद औ कोल्ह अल्ह अच्छर परवाने॥
माधव मथुरा मध्य साधु जीवानँद सींवा।
उदा नरायनदास नाम माँडन नत ग्रीवा॥
चौरासी रूपक चतुर बरनत बानी जूजुवा।
चरन सरन चारन भगत हरिगायक एता हुआ॥

मूलार्थ – भगवान् श्रीहरिके चरणकमलको ही अपना सरन अर्थात् आश्रय मानने वाले ये चारण भक्त भगवान्‌के यशके गायक हुए – (१) चौमुखजी (२) चौराजी (३) चण्डजी (४) जगतजी और (५) ईश्वरजी – जो भगवान्‌का गुण जानते थे और जिन्होंने प्राकृत राजाओंका गुणगान छोड़कर भगवान्‌को ही गाया। (६) कर्मानन्दजी (७) कोल्हजी (८) अल्हजी – ये अक्षरब्रह्मको ही प्रमाण मानकर भगवद्गुणगान करते थे, यह सर्वविदित है। (९) मथुराके मध्य विराजमान माधवजी (१०) साधु अर्थात् संत स्वभाव वाले जीवानन्दजी (११) सींवाजी (१२) उदाजी (१३) नारायणदासजी और (१४) विनम्र कण्ठ वाले माण्डनजी – ये सभी चौरासी रूपकोंमें चतुर थे अथवा चौरासी लाख योनियोंमें भटकने वाले जीवोंके प्रति भगवान्‌का रूपदर्शन करानेमें चतुर थे। ये जूजुवा अर्थात् भगवान्‌के यशका अद्भुत वाणीमें वर्णन करते थे।