पद १३८


॥ १३८ ॥
गुननिकर गदाधर भट्ट अति सबही को लागे सुखद॥
सज्जन सुहृद सुसील बचन आरज प्रतिपालय।
निर्मत्सर निहकाम कृपा करुना को आलय॥
अननि भजन दृढ़ करन धर्यो बपु भक्तन काजै।
परम धरम को सेतु बिदित बृंदावन गाजै॥
भागवत सुधा बरषै बदन काहू को नाहिंन दुखद।
गुननिकर गदाधर भट्ट अति सबही को लागे सुखद॥

मूलार्थश्रीगदाधर भट्टजी गुणोंके समूहसे सुशोभित होकर सभीको अत्यन्त सुखद लगते थे अथवा गदाधर भट्टजीके गुणोंके समूह सभीको सुखद लगते थे, अथवा गुणोंका समूह है जिनमें ऐसे गदाधरभट्टजी सभीको सुखद ही लगते थे। वे सज्जन थे, सुहृद् थे अर्थात् सबके मित्र थे, और उनका स्वभाव अत्यन्त सुन्दर था। श्रेष्ठोंके वचनोंका गदाधर भट्टजी प्रीतीतिपूर्वक पालन करते थे। उनके मनमें किसीके प्रति मत्सर नहीं था, डाह नहीं थी। गदाधर भट्टजीके मनमें किसी प्रकारकी कामना नहीं थी। वे कृपा और करुणा – इन दोनों गुणोंके आलय अर्थात् भवन थे। अनन्यतारूप भजनको दृढ़ करनेके लिये ही मानो भक्तोंके हेतु उन्होंने दिव्य शरीर धारण किया था। वे परम धर्म अर्थात् भगवान्‌की प्रेमा भक्ति रूप भजनके सेतु ही थे। वे वृन्दावनमें भगवद्भक्तिकी या भगवन्नाम­संकीर्तनकी गर्जना करते थे, यह सबको विदित है। श्रीगदाधर भट्टजीका मुख भागवत­सुधाका वर्षण करता रहता था, अथवा श्रीगदाधर भट्टजी अपने मुखसे श्रीभागवतामृतका वर्षण करते रहते थे, और वे किसीको दुःखद नहीं थे अर्थात् किसीको उनके व्यवहारसे दुःख नहीं होता था।

श्रीगदाधर भट्टजी दक्षिणमें आन्ध्रप्रदेशमें उत्पन्न हुए थे। उन्होंने दक्षिणमें रहकर भी ब्रजभाषाका अभ्यास किया था। एक बार उन्होंने ब्रजभाषामें गीत बनाकर गाया – सखी हौं तो स्याम रंग रँगी। यह गीत सुनकर कोई वैष्णव आया और वृन्दावनमें उसने यह गीत जीव­गोस्वामीजीको सुनाया। यह गीत सुनते ही जीव­गोस्वामीजीने यह जान लिया कि गदाधर भट्टजी कोई भगवान्‌के भक्त हैं या भगवत्पार्षद हैं। इसलिये उन्होंने दो वैष्णव भक्त भेजे कि वे शीघ्र गदाधर भट्टजीको वृन्दावन लिवा लाएँ। वैष्णव भक्त जीव­गोस्वामीजीका पत्र लेकर गदाधर भट्टजीके गाँव पहुँचे। उस समय भगवच्चिन्तनके पश्चात् गदाधर भट्टजी दातौन अर्थात् दन्तधावन कर रहे थे। वैष्णवोंने गदाधर भट्टजीको यह पत्र दिखाया। पत्र देखते ही गदाधर भट्टजी मूर्च्छित हो गए। संज्ञान होनेपर दोनोंने गदाधरजीको जीव­गोस्वामीजीका संदेश सुनाया और उन वैष्णवोंके साथ ही गदाधर भट्टजी तुरन्त घर-द्वार छोड़कर चल पड़े। जीव­गोस्वामीजीके चरणमें आकर उन्होंने भगवद्भक्ति­शास्त्रका अध्ययन किया और श्रीभागवतका प्रवचन करते हुए वे श्रीवृन्दावनमें विराजे। गदाधर भट्टजीके व्यवहारसे कभी कोई दुःखी नहीं होता था, सब सुखी रहते थे। वे अपने गुणोंका इस प्रकार प्रयोग करते थे कि किसीको प्रतिकूलताका बोध ही नहीं होता था।

एक संत गदाधर भट्टजीकी कथा सुनने आते थे। गदाधर भट्टजीकी कथा इतनी करुण होती थी कि सभी श्रोताओंको रुलाई आ जाती थी, पर उन संतको रुलाई नहीं आती थी। उनको स्वयं लज्जा लगती थी। एक दिन वे अपने अँगोछेमें मिर्चीकी बुकनी लगाकर आए। जब गदाधर भट्टजीकी कथामें सब लोग रोने लगे तो उन्होंने अपनी आँखोंमें मिर्ची लगा ली और उनकी आँखोंसे अश्रुधारा चल पड़ी। एक दिन किसी भक्तने उनकी यह बात गदाधरजी भट्टजीको बताई। गदाधर भट्टजी कथाके अन्तमें उन संतके चरणोंमें लिपट गए और कहा– “भगवन्! आपने मुझे यह शिक्षा दी है। हम तो यही जानते थे कि भगवान्‌की कथा श्रवण करते समय जिन आँखोंमें अश्रु न आएँ, उनमें धूल डाल देनी चाहिये, परन्तु आपने तो इससे भी अधिक दण्ड दिया कि यदि भगवान्‌की कथामें नेत्रसे अश्रु न आएँ, तो उन नेत्रोंमें मिर्ची ही डाल देनी चाहिये। आपने बहुत कृपा की।”

स्रवै न सलिल सनेहु तुलसी सुनि रघुबीर जस।
ते नयना जनि देहु राम करहु बरु आँधरो॥
रहैं न जल भरि पूरि राम सुजस सुनि रावरो।
तिन आँखिन में धूरि भरि भरि मूठी मेलिये॥

(दो. ४४, ४५)

इस प्रकार गदाधर भट्टजी सबको सुखद ही लगते थे। यह भी एक विलक्षण गुण है कि हमारे व्यवहारसे किसीको दुःख न हो। प्रतिकूलताको भी अनुकूलतामें बदल देना – यही तो संतकी विलक्षणता है।

अब नाभाजी कतिपय चारणोंकी चर्चा करते हैं, जो पहले तो अपनी कविताओंसे राजाओंको रिझाते थे, फिर तो सबके राजा राजाधिराज महाराज श्रीरामचन्द्र और राजाधिराज श्रीद्वारकाधीशको ही रिझाने लगे।