पद १३७


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जंगली देश के लोग सब परसुराम किए पारषद॥
ज्यों चंदन को पवन निंब पुनि चंदन करई।
बहुत काल तम निबिड़ उदय दीपक जिमि हरई॥
श्रीभट पुनि हरिब्यास संत मारग अनुसरई।
कथा कीरतन नेम रसन हरिगुन उच्चरई॥
गोबिंद भक्ति गद रोग गति तिलक दाम सद्वैद्य हद।
जंगली देश के लोग सब परसुराम किए पारषद॥

मूलार्थजंगली देश अर्थात् जहाँ पूर्ण पशुवृत्ति ही थी, जहाँके लोग वन्य जीवन जी रहे थे और जहाँके लोगोंको भगवान् और भक्तोंसे कोई लेना-देना नहीं था, ऐसे देशके भी सभी लोगोंको श्रीपरशुराम­देवाचार्यजीने भगवान्‌का पार्षद बना दिया अर्थात् भगवत्परायण बना दिया। जिस प्रकार चन्दनका वृक्षकी वायु अपने निकट रहने वाले नीमके वृक्षको भी चन्दन बना देती है तथा जिस प्रकार जलाया हुआ दीपक बहुत कालसे वर्तमान घने अन्धकारको भी दूर कर देता है, उसी प्रकार अपने संपर्कमें आने वाले सभी लोगोंको परशुराम­देवाचार्यजीने भगवद्भक्त बना दिया। श्रीभट्टजी एवं श्रीहरिव्यास­देवाचार्यजी और अन्य संतोंका परशुराम­देवाचार्यजी अनुसरण करते थे। उनका भगवान्‌की कथा और कीर्तनमें ही नियम था तथा वे अपनी रसनासे भगवान्‌के गुणोंका ही उच्चारण करते रहते थे। परशुराम­देवाचार्यजीने संसारके रोगोंको नष्ट करनेके लिये तिलक और कण्ठीकी सहायतासे श्रेष्ठ वैद्य होकर भगवान्‌की भक्ति रूप महौषधि अमृतका प्रयोग किया, जिससे संसारका रोग समाप्त हो गया। गोविन्द भक्ति गद रोग गति – यहाँ गदका अर्थ अगद अर्थात् औषधि है, वह भी यहाँ अमृत औषधिसे तात्पर्य है। इसी औषधिके लिये हितोपदेशमें अगदः किं न पीयते (हि.प्र. २९) कहा गया। चन्दनका वृक्ष अपने समीप रहने वाले नीमको भी चन्दन कर देता है, इसपर भर्तृहरिके नीतिशतकमें बहुत सुन्दर-सी सूक्ति है –

किं तेन हेमगिरिणा रजताद्रिणा वा यत्राश्रिताश्च तरवस्तरवस्त एव।
मन्यामहे मलयमेव यदाश्रयेण कङ्कोलनिम्बकुटजा अपि चन्दनाः स्युः॥

(नी.श. ७९)

अर्थात् उस स्वर्णपर्वत और चाँदीके पर्वतसे क्या लाभ, जहाँ रहकर वृक्ष वृक्ष ही रह जाते हैं, हम तो उस मलयपर्वतको ही श्रेष्ठ मानते हैं, जिसके आश्रयसे अर्थात् जिसके निकट रहकर कङ्कोल, नीम और कुरैया जैसे रूखे वृक्ष भी चन्दन बन जाते हैं।