॥ १३५ ॥
कलिकाल कठिन जग जीति यों राघव की पूरी परी॥
काम क्रोध मद मोह लोभ की लहर न लागी।
सूरज ज्यों जल ग्रहै बहुरी ताही ज्यों त्यागी॥
सुंदर सील स्वभाव सदा संतन सेवाब्रत।
गुरु धर्म निकष निर्बह्यो विश्व में बिदित बड़ो भृत॥
अल्हराम रावल कृपा आदि अंत धुकती धरी।
कलिकाल कठिन जग जीति यों राघव की पूरी परी॥
मूलार्थ – श्रीराघवदासजीने कठिन कलिकालको जीत लिया था। उनकी पूरी परी अर्थात् भक्तिका उन्होंने पूर्ण निर्वहण किया। उनके जीवनमें काम, क्रोध, मद, मोह और लोभकी लहर भी नहीं लगी थी। जिस प्रकार सूर्यनारायण जलको ग्रहण करते हैं और फिर छोड़ देते हैं, उसी प्रकार वे संग्रह करते थे परन्तु संतोंके लिये सब कुछ त्याग देते थे। उनका शील अर्थात् आचरण और स्वभाव बहुत सुन्दर था। वे सदैव संतोंकी सेवाका व्रत लिये हुए थे। गुरुधर्मकी कसौटीपर वे निर्विघ्न रूपसे खरे उतरे थे। वे विश्वमें बहुत बड़े गुरुभक्तके रूपमें विदित हुए थे। श्रीअल्हराम रावलजीकी कृपासे आदिसे अन्त तक अपनी धुकती अर्थात् मनकी वृत्तियोंको उन्होंने भगवत्सेवामें धारण किया था। इस प्रकार इस कठिन कलिकालको जीतकर राघवदासजीने अपने जीवनको पूर्ण रूपसे भगवत्सेवामें समर्पित किया था।
अब नाभाजी एक दिव्य चर्चा प्रस्तुत करते हैं। वह है हरिदासजीकी।