॥ १३१ ॥
(श्री)बल्लभजूके बंस में सुरतरु गिरिधर भ्राजमान॥
अर्थ धर्म काम मोक्ष भक्ति अनपायनि दाता।
हस्तामल श्रुति ज्ञान सबही शास्त्रन को ज्ञाता॥
परिचर्या ब्रजराज कुँवर के मन को कर्षे।
दर्शन परम पुनीत सभा तन अमृतवर्षे॥
बिट्ठलेशनंदन सुभाव जग कोऊ नहिं ता समान।
(श्री)बल्लभजूके बंस में सुरतरु गिरिधर भ्राजमान॥
मूलार्थ – श्रीवल्लभजूके वंशमें गिरिधरजी कल्पवृक्षके समान विराजमान हुए थे। वे भक्तोंको अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष और अनपायिनी भक्ति देनेमें समर्थ थे। उनको संपूर्ण श्रुतिका ज्ञान हस्तामलकवत् था। सभी शास्त्रोंके वे ज्ञाता थे। श्रीगिरिधरजीकी परिचर्या इतनी सुन्दर होती थी कि वे व्रजराजकुँवर श्रीकृष्णचन्द्रजीके मनको भी आकर्षित कर लेते थे। उनका दर्शन परमपवित्र था। सभामें उनके मुखसे अमृतकी वर्षा होती थी। स्वभावमें विट्ठलनाथजीके प्रथम पुत्र श्रीगिरिधरजीके समान कोई जगत्में हुआ ही नहीं।