॥ १२७ ॥ कात्यायनि के प्रेम की बात जात कापै कही॥ मारग जात अकेल गान रसना जु उचारै। ताल मृदंगी बृच्छ रीझि अंबर तहँ डारै॥ गोप नारि अनुसारि गिरा गद्गद आवेसी। जग प्रपंच तें दूरि अजा परसे नहिं लेसी॥ भगवान रीति अनुराग की संतसाखि मेली सही। कात्यायनि के प्रेम की बात जात कापै कही॥
मूलार्थ – गौड़देशके राजाकी पुत्री भगवती कात्यायनीके भगवत्प्रेमकी बात किसके द्वारा कही जा सकती है? वे अकेले मार्गमें जाती हुईं जब भगवान्के गीतका अपनी रसनासे उच्चारण करती थीं, तब उनको लगता था मानो वृक्ष भी उनके गीतपर ताल दे रहे हैं और प्रसन्न होकर वे वृक्षोंपर अपने वस्त्र भी डाल देती थीं। जब कात्यायनीजी वस्त्रहीन हो जाती थीं, तब भगवान् उनको वस्त्र धारण करा दिया करते थे। वे व्रजनारीके समान ही भगवत्प्रेममें उन्मत्त रहती थीं। उनकी वाणी गद्गद रहा करती थी। वे सतत भगवान्के प्रेमके आवेशमें रहा करती थीं। कात्यायनीजी संसारके प्रपञ्चसे दूर थीं। कभी भी मायाने उनका स्पर्श भी नहीं किया था। भगवान्के प्रति उनके अनुरागकी रीतिके संत साक्षी थे, और भगवान्ने उसे सत्य करके दिखाया था।