॥ १२५ ॥ बिमलानन्द प्रबोध बंस संतदास सीवाँ धरम॥ गोपीनाथ पदराग भोग छप्पन भुंजाए। पृथु पधति अनुसार देव दंपति दुलराए॥ भगवत भक्त समान ठौर द्वै को बल गायो। कबित सूर सों मिलत भेद कछु जात न पायो॥ जन्म कर्म लीला जुगति रहसि भक्ति भेदी मरम। बिमलानन्द प्रबोध बंस संतदास सीवाँ धरम॥
मूलार्थ – विमलानन्दजी और प्रबोधानन्दजीके वंशमें जन्म लेकर संतदासजी वैष्णव धर्मकी सीमा बन गए थे। श्रीगोपीनाथजीके चरणमें उनका रागात्मक प्रेम था। वे भगवान्को छप्पन भोग लगाते थे। वे पृथुपद्धतिके अनुसार पूजा करके देवदम्पतीको दुलराते थे। भगवान् और भक्तको वे एक समान देखते थे और दोनोंका बल उन्होंने ठौर-ठौरपर गाया। उनकी कविता सूरदासजीकी कवितासे मिलती थी, कोई भी अन्तर नहीं दिखता था। भगवान्के जन्म, कर्म और लीलारहस्यकी युक्ति और भक्तिसे उन्होंने भ्रमको नष्ट किया था।