॥ १२४ ॥ चालक की चरचरी चहूँ दिसि उदधि अंत लों अनुसरी॥ सक्र कोप सुठि चरित प्रसिध पुनि पंचाध्याई। कृष्न रुक्मिनी केलि रुचिर भोजन बिधि गाई॥ गिरिराजधरन की छाप गिरा जलधर ज्यों गाजै। संत सिखंडी खंड हृदय आनँद के काजै॥ जाड़ा हरन जग जाड़ता कृष्णदास देही धरी। चालक की चरचरी चहूँ दिसि उदधि अंत लों अनुसरी॥
मूलार्थ – श्रीकृष्णदासजी चालककी चरचरी गीतकी परम्परा चारों दिशाओंमें समुद्रके उस पार भी विस्तृत हो गई थी। इन्द्रने जब क्रोध किया था, उस समय जो भगवान्ने सुन्दर गोवर्धनलीलाकी थी, उस चरित्रका, फिर रासपञ्चाध्यायी का, कृष्ण-रुक्मिणीकी केलिका और उनकी सुन्दर भोजनविधिका अनेक पदोंमें कृष्णदासजी चालकजीने गान किया। उनकी गिरिराजधरनकी छाप थी। कृष्णदास चालकजीकी वाणी मेघके समान गम्भीर थी अर्थात् उनकी वाणीमें मेघके समान गर्जना होती थी, और संत सिखंडी खंड हृदय आनँद के काजै अर्थात् वे संतरूप मयूरोंके समूहके हृदयोंको आनन्द देनेके लिये ही अपनी कविताका पाठ करते थे। श्रीकृष्णदास चालकजीने संसारकी जड़ता और शीतलताको नष्ट करनेके लिये सूर्यनारायणके समान अपना शरीर धारण किया था।