॥ १२२ ॥
खेमाल रतन राठौड़ के सुफल बेलि मीठी फली॥
हरीदास हरिभक्त भक्ति मंदिर को कलसो।
भजनभाव परिपक्व हृदय भागीरथि जल सो॥
त्रिधा भाँति अति अननि राम की रीति निबाही।
हरि गुरु हरि बल भाँति तिनहिं सेवा दृढ़ साही॥
पूरन इंदु प्रमुदित उदधि त्यों दास देखि बाढ़े रली।
खेमाल रतन राठौड़ के सुफल बेलि मीठी फली॥
मूलार्थ – श्रीखेमालरत्न राठौरजीके यहाँ भक्तिपरम्परा की सुन्दर लता बहुत मीठे फलों को फली। इनके वंशमें सुपुत्र हरिदासजी आए। वे श्रीहरिके भक्त थे और भक्तिके मन्दिरके कलशके समान थे। उनका भजनभाव अत्यन्त परिपक्व था। हरिदासजीका हृदय गङ्गाजलके समान निर्मल हो गया था। उन्होंने तीनों प्रकारसे अत्यन्त अनन्यताके साथ-साथ रामरयनजीकी रीतिका निर्वहण किया, अर्थात् मनसा, वाचा, कर्मणा संतोंकी सेवा की। हरिस्वरूप गुरुका बल इनमें भगवद्बलकी भाँति था, हरिदासजीने उनकी सेवा राजपरम्पराके समान की। संतोंको देखकर वे उसी प्रकार प्रसन्न होते थे, जैसे पूर्ण चन्द्रमाको देखकर सागर प्रसन्न हो जाता है। इस प्रकार खेमालरत्न राठौरजीकी भक्ति रूप बेलिमें वैष्णव पुत्र रूप फल लगा।