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हरि गुरु हरिदासन सों रामघरनि साँची रही॥
आरज को उपदेश सुतो उर नीके धार्यो।
नवधा दशधा प्रीति आन धर्म सबै बिसार्यो॥
अच्युत कुल अनुराग प्रगट पुरुषारथ जान्यो।
सारासार बिबेक बात तीनो मन मान्यो॥
दासत्व अननि उदारता संतन मुख राजा कही।
हरि गुरु हरिदासन सों रामघरनि साँची रही॥
मूलार्थ – वस्तुतः श्रीरामरयनजीकी पत्नी श्रीहरि, श्रीगुरु और भगवद्दासोंके प्रति सच्ची रहीं अर्थात् उन्होंने इनके प्रति यथार्थ व्यवहार किया। उन्होंने अपने आर्य अर्थात् पति श्रीरामरयनजीके उपदेशको हृदयमें धारण किया। अथवा, उन्होंने रामरयनजीके उपदेशको और रामरयनजीके द्वारा स्थापित गर्भके पुत्रको प्रेमसे हृदयमें धारण किया, अर्थात् उपदेशको भी धारण किया और बालकको भी गर्भमें धारण किया। उन्होंने परम भागवत बालकको जन्म दिया। उनके जीवनमें नवधा भक्ति और दशधा प्रेमलक्षणा भक्ति – यही उनकी सम्पत्ति थी। अन्य सभी धर्मोंको महारानी भूल गई थीं। अच्युत कुल अर्थात् वैष्णवकुलके अनुरागको ही वे अपना प्रकट पुरुषार्थ जानती थीं। सारासारका विवेक उनके मनमें था। तीन बातें उनके मनने स्वीकार कर ली थीं – भगवद्दासत्व, भगवदनन्यता और उदारता। वे भगवान्की सेविका थीं, भगवान्के प्रति अनन्य थीं और दान देनेमें उदार थीं। यह बात संतोंने भी अपने मुखसे कही और महाराज रामरयनने भी अपनी पत्नीकी इन तीनों बातोंके लिये प्रशंसा की।
एक बार दम्पती (रामरयनजी और उनकी पत्नी) वृन्दावन आए। उन्होंने सब कुछ लुटा दिया, उनके पास कुछ भी नहीं रह गया। तब किसीसे पाँच सौ रुपए लेकर वे अपने राज्य आए, और फिर उस धनको लौटाया।