पद ११५


॥ ११५ ॥
लोकलाज कुलशृंखला तजि मीराँ गिरिधर भजी॥
सदृश गोपिका प्रेम प्रगट कलिजुगहिं दिखायो।
निरअंकुश अति निडर रसिक जस रसना गायो॥
दुष्टन दोष विचार मृत्यु को उद्यम कीयो।
बार न बाँको भयो गरल अमृत ज्यों पीयो॥
भक्ति निशान बजाय कै काहू ते नाहिन लजी।
लोकलाज कुलशृंखला तजि मीराँ गिरिधर भजी॥

मूलार्थ – लोकलज्जा और कुलकी मर्यादाको जब मीराँजीने छोड़ा और सब कुछ छोड़कर जब भगवान्‌का भजन किया अथवा जब मीराँने लोकलाज और कुलकी शृङ्खला छोड़ी, तब गिरिधरने मीराँको स्वीकारा। मीराँजी एक राज­परिवारमें जन्मी थीं। उन्हें बचपनसे ही गिरिधर­लालपर प्रेम था। महाराणा सांगाके ज्येष्ठ पुत्र भोजराजसे इनका संबन्ध हो रहा था। कहा जाता है कि जब भाँवरी पड़ रही थीं तब भी मीराँजी गिरिधर­लालके साथ ही भाँवरी ले रही थीं। मीराँजी अपने साथ गिरिधर­लालको भी चित्तौड़ ले आईं। जब सासुने देवीजीकी पूजा करनेकी बात की तब मीराँजीने कह दिया – “मैं तो गिरिधर­लालकी ही पूजा करूँगी।” वे एकान्तमें रहती थीं। महाराज भोजराजने उनका साथ दिया, कुछ भी नहीं कहा। मीराँजी भगवद्भजन करती रहीं। मीराँजीने गोपिकाके सदृश भगवान् कृष्णसे अलौकिक प्रेमको कलियुगमें प्रकट करके सबको दिखा दिया। वे बन्धनरहित और निडर होकर रसिक जस अर्थात् भगवद्यशको अपनी रसना अर्थात् जिह्वा से गाती थीं। दुष्टोंने उनके भजनमें दोष देखकर उनकी मृत्युका प्रयास किया, परन्तु उनका एक भी बाल बाँका नहीं हुआ। राणाने विष भिजवाया, उसे भी मीराँजीने अमृतकी भाँति पी लिया। भक्तिका निशान बजाकर मीराँजी किसीसे लज्जित नहीं हुईं और डंकेकी चोटपर उन्होंने भगवान्‌का भजन किया – मैं तो गिरिधर आगे नाचूँगी, पग घुँघरू बाँध मीराँ नाची रे

राणाने दयाराम पंडासे विषका कटोरा यह कहकर भिजवाया कि यह शालग्रामका चरणोदक है। मीराँजीने पी लिया। राणाने फिर साँपका पिटारा भिजवाया, जब साँपको मीराँजीने देखा तो वह शालग्राम बन गया। इस प्रकार भिन्न-भिन्न उपद्रव किये गए, पर मीराँजीपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अन्ततोगत्वा मीराँजीने घर छोड़ दिया और वृन्दावन आईं। वृन्दावनमें उन्होंने जीव­गोस्वामीजीसे सत्संग किया। फिर वे द्वारका आ गईं। मीराँजीके न रहनेसे जब चित्तौड़में अशुभ होने लगा, तब महाराणा उदयसिंहजीने मीराँजीको बुलवा भेजा। ब्राह्मणोंने जाकर कहा, पर मीराँजी नहीं मानीं। ब्राह्मणोंने बहुत हठ किया, तब मीराँजीने कहा – “ठीक है! रणछोड़रायसे आज्ञा ले लेती हूँ।” और रणछोड़रायसे मीराँजीने आज्ञा ली और कहा –

मीराँ के प्रभु गिरिधर नागर मिलि बिछुरन जनि कीजो हो।

तुरन्त मीराँजी समा गईं रणछोड़राय में।