पद ११३


॥ ११३ ॥
अभिलाष भक्त अंगद को पुरुषोत्तम पूरन कर्यो॥
नग अमोल इक ताहि सबै भूपति मिलि जाचैं।
साम दाम बहु करैं दास नाहिंन मत काचैं॥
एक समै संकट लै वह पानी महिं डार्यो।
प्रभू तिहारी बस्तु बदन तें बचन उचार्यो॥
पाँच दोय सत कोस तें हरि हीरा लै उर धर्यो।
अभिलाष भक्त अंगद को पुरुषोत्तम पूरन कर्यो॥

मूलार्थ – भक्त अंगदकी इच्छाको भगवान्‌ने पूर्ण किया। अंगदजी रायसेनगढ़के राजा सिलाहदी­सिंहके चाचा थे। वे भगवान्‌के बहुत बड़े भक्त थे। एक बार भगवत्प्रेममें उन्हें सौ हीरे भगवान्‌के यहाँसे प्राप्त हुए थे। उन्होंने निन्यानवे हीरोंसे तो संतसेवा कर ली और शेष एक हीरा अपने पास रखा। राजाओंको समाचार मिला। सब राजाओंने मिलकर उनसे माँगा, पर अंगदजीने नहीं दिया। यहाँ तक कि एक राजाने उनकी बहनसे कह दिया कि तुम इनको विष देकर मार डालो। वह विषकी थाली ले आई, परन्तु उसकी बेटी भी अंगदजीके साथ प्रतिदिन भोजन करती थी। उसने अपनी बेटीको छुपा दिया था। जब अंगदजीने कहा – “बेटीको बुलाओ, तभी भोजन करेंगे,” तो उसने नहीं बुलाया। अन्तमें उसके मनमें भ्रातृप्रेम आ गया और उसने कहा – “इसे मत खाओ! इसमें विष है।” परन्तु अंगदजीने कहा – “भगवान्‌को भोग लग गया, अब तो मैं खाऊँगा।” अंगदजीने खा लिया, कोई अन्तर नहीं पड़ा। इधर राजाओंने उनपर बहुत साम और दामका प्रयोग किया पर भक्त अंगदका मत कच्चा नहीं था, उन्होंने हीरा नहीं दिया। फिर एक समय अंगदजीने संकट जानकर उस हीरेको पानीके एक कुण्डमें डाल दिया और मुखसे यह वचन कहा – “प्रभु! आपकी वस्तु है, आप इसे स्वीकार लीजिये।” सात सौ कोससे हाथ बढ़ाकर जगन्नाथजीने वह हीरा ले लिया और अपने हृदयमें धारण कर लिया। जगन्नाथजीने पण्डोंसे अंगदजीको कहलवा दिया कि उन्होंने वह हीरा धारण कर लिया है। इस प्रकार भगवान्‌ने भक्त अंगदके मनोरथको पूर्ण कर दिया।