पद ११०


॥ ११० ॥
नंददास आनंदनिधि रसिक सु प्रभु हित रँगमगे॥
लीला पद रस रीति ग्रंथ रचना में नागर।
सरस उक्ति जुत जुक्ति भक्ति रस गान उजागर॥
प्रचुर पयोधि लौं सुजस रामपुर ग्राम निवासी।
सकल सुकुल संबलित भक्तपदरेणु उपासी॥
चंद्रहास अग्रज सुहृद परम प्रेम पय में पगे।
नंददास आनंदनिधि रसिक सु प्रभु हित रँगमगे॥

मूलार्थश्रीनन्ददासजी आनन्दके निधान थे, अत्यन्त रसिक थे और प्रभु हित अर्थात् भगवान्‌के प्रेममें रँग गए थे। दिव्य लीलापदोंमें और रसकी रीतियोंमें वे ग्रन्थ­रचना करने में चतुर थे। उनकी उक्तियाँ युक्तियोंके सहित होते हुए भी सरस हुआ करती थीं। वे भक्तिके रसमें और गानमें उजागर थे। उनका प्रचुर सुयश समुद्रपर्यन्त छाया हुआ था। वे रामपुर ग्राममें रहते थे। अपने संपूर्ण श्रेष्ठ परिवार के सहित वे भक्तोंकी चरणरेणुकी उपासना करते थे। उनके बड़े भ्राता चन्द्रहास अत्यन्त सुहृद् थे। नन्ददासजी सतत परमप्रेमके रसमें अर्थात् भगवान्‌के प्रेममें पगे रहा करते थे। ऐसे अत्यन्त रसिक आनन्दनिधि नन्ददासजी भगवान्‌के प्रेममें रँग गए थे।

नन्ददासजीका संपूर्ण परिवार भगवत्प्रेममें पगा हुआ था। संपूर्ण शुक्ल परिवार इकट्ठे भगवद्रसका पान करता था। नन्ददासजी गोस्वामी तुलसीदासजीके गुरुभ्राता थे। श्रीविट्ठलजीसे उन्होंने श्रीकृष्णमन्त्रकी दीक्षा ली थी। तुलसीदासजीने एक बार देखा तो नन्ददासजीसे पूछा – काह कमी रघुनाथ में आये धरे यह बान। नन्ददासजीने कहा – मन बैरागी होइ गयो सुन मुरली की तान। नन्ददासजीने दिव्य भगवद्यशोगान किया और संपूर्ण भागवतको भाषाबद्ध किया। नन्ददासजीका भ्रमरगीत बहुत ही प्रसिद्ध है।