पद १०८


॥ १०८ ॥
जगत बिदित नरसी भगत (जिन) गुज्जर धर पावन करी॥
महा समारत लोग भक्ति लौलेश न जानें।
माला मुद्रा देखि तासु की निंदा ठानें॥
ऐसे कुल उत्पन्न भयो भागवत शिरोमनि।
ऊसर तें सर कियो खंड दोषहि खोयो जिनि॥
बहुत ठौर परचो दियो रसरीति भगति हिरदै धरी।
जगत बिदित नरसी भगत (जिन) गुज्जर धर पावन करी॥

मूलार्थश्रीनरसी भगतजी जगत्‌में बिदित अर्थात् प्रसिद्ध हुए, जिन्होंने गुजरातकी भूमिको पावन कर दिया। गुजरातमें लोग महास्मार्त हुआ करते थे। वे भक्तिका लवलेश भी नहीं जानते थे, और किसीके भी गलेमें कण्ठी और बाहुपर मुद्रा देखकर उसकी निंदा करने लगते थे। नरसी भगतजी ऐसे कुलमें उत्पन्न हुए, परन्तु भगवद्भक्तोंके शिरोमणि बन गए। उन्होंने ऊसर जैसे नीरस हृदयोंको भक्तिके तालाब जैसा सरस­हृदय बना दिया और देशके दोषको नष्ट कर दिया। उन्होंने बहुत स्थानोंपर अपना परिचय दिया और रसिक रीतिसे माधुर्यपूर्ण भक्तिको अपने हृदयमें धारण किया।

नरसीजीका जन्म एक ब्राह्मण­कुलमें हुआ था। पाँच वर्षकी अवस्थामें ही उनके माता-पिताका स्वर्गवास हो चुका था। अपनी भाभीके व्यवहारसे क्षुब्ध होकर नरसीजी घर छोड़कर एक शिव­मन्दिरमें चले गए। वे सात दिन तक भूखे-प्यासे शिवजीके पास लेटे रहे। शिवजीने प्रसन्न होकर पूछा – “बताओ! क्या चाहते हो?” तो नरसीजीने कहा – “जो आपको परमप्रिय हो, वही मुझे दे दीजिये।” शिवजीने कहा – “ठीक है! मेरे परमप्रिय तो भगवान् हैं, उन्हींका भाव तुम्हें दे देता हूँ।” शिवजीने नरसीजीको भगवद्भाव अर्पित कर दिया और श्रीकृष्ण भगवान्‌की रासलीलामें इनका प्रवेश करा दिया, और नरसीजीको मशालकी सेवा दी। नरसीजीने रासबिहारी भगवान्‌के दिव्य दर्शन किये, रासमण्डलकी झाँकीका अनुभव किया और भगवान्‌की आज्ञासे पुनः एक अलग स्थानपर रहने लगे। उन्होंने भगवान्‌की आज्ञासे ही गृहस्थाश्रममें प्रवेश किया और उनका माणिक­गौरी­बाईसे विवाह हुआ। उनके यहाँ दो पुत्रियों (कुँवरबाई और रत्नाबाई) और एक पुत्र श्यामलदासका जन्म हुआ। नरसीभक्त संतसेवा करते रहे। एक बार कुछ दुष्टोंने उनके यहाँ संतोंको यह कहके भेज दिया – “नरसी महाजन हैं, ये हुंडी कर देंगे।” संत सात सौ रुपए लाए और कहा – “नरसीजी, आप हुंडी कर दीजिये, हम द्वारका जा रहे हैं।” इन्होंने श्यामलशाहके लिये हुंडी लिख दी। संत द्वारका गए, सेठजीको ढूँढा, नहीं मिले। जब हार गए, तब भगवान् सुन्दरसे साहूकारका रूप धारण करके प्रकट हो गए, और नरसीजीकी हुंडी देखकर भगवान्‌ने उन्हें सात सौ रुपए दे दिये। संत द्वारका­दर्शन करके लौट आए और नरसीजीको दिखाया तो नरसीजी बहुत प्रसन्न हुए। संतोंके दिये हुए धनसे नरसीजीने साधुओंकी सेवा की।

नरसीजीकी पुत्रीका विवाह हुआ, उसके यहाँ एक बालक आया। बालकके जन्मके उपलक्ष्यमें छूछक देना था, पर नरसीजीके पास तो कुछ भी नहीं था। उनकी बेटीने कहा – “पिताजी! मेरी सास मुझे गाली देती है।” नरसीजीने कहा – “ठीक है! मैं आता हूँ।” वे एक टूटी हुई बैलगाड़ीपर आए, तो उनकी बेटीने कहा – “आप न ही आए होते, तो ठीक था।” उन्होंने कहा – “तुम चिन्ता न करो, सब ठीक हो जाएगा।” बेटीकी सासने उन्हें निवासके लिये एक सामान्य सी कोठरी दे दी और नहानेके लिये खौलता हुआ गरम पानी भिजवाया, पर वर्षा हो गई और जल शीतल हो गया। नरसीजीने स्नान किया। भगवत्सेवा प्रारम्भ हुई। नरसीजीने बेटीसे कहा कि वे साससे सामान लिखवा लें कि किसको क्या देना है। क्रोधमें आकर सासने पूरे परिवारके लिये और गाँवकी सभी स्त्रियोंके लिये गहने लिखवा डाले। नरसीजीने बेटीसे कहा – “एक बार फिर पूछकर आओ।” सासने सब कुछ लिखवानेके पश्चात् दो पत्थर भी लिखवाए। अनन्तर नरसीजीने भगवान्‌का स्मरण किया और सब कुछ भगवान्‌ने दे दिया। दो पत्थरके रूपमें दो स्वर्ण­शिलाएँ दे दीं कि वे समधी-समधिनके लिये आईं हैं। सब लोग आश्चर्यमें पड़ गए। सास गद्गद हो गई – “अरे! नरसी इतने प्रभावशाली हैं।”

इधर रत्नाबाईको भी वैराग्य हो गया, वे नरसीके घर ही आ गईं। नरसीजीने दोनों पुत्रियों (कुँवरसेना, रत्नसेना)के साथ और दो गायिकाएँ भी रख लीं, दिन-रात भजन चलने लगा। जब महाराजको समाचार मिला कि नरसीका भजन बढ़ता जा रहा है तो उन्होंने नरसीको बुलाया और प्रश्न किया – “आप स्त्रियोंको साथ लेकर भगवद्भजन करते हैं?” तो नरसीजीने कहा – “शास्त्रोंके अनुसार भगवद्भजनमें किसी स्त्री या पुरुषका कोई भेद नहीं माना जाता।” उत्तरसे महाराज संतुष्ट हुए।

नरसीजीके लिये एक ख्याति हो चुकी थी कि जब नरसीजी गाते हैं, तब भगवान् अपने गलेकी माला उन्हें पहना देते हैं। संयोग था, एक बार संतसेवाके लिये नरसीजीके पास कुछ नहीं था। उन्होंने केदार­रागको गिरवी रखकर एक सेठसे पैसे लेकर संतसेवा की थी। राजा आ गए और बड़ी-सी माला भगवान्‌के लिये लाए कि यह माला ठाकुरजीको पहनाओ और देखते हैं कि कैसे ठाकुरजी यह माला नरसीजीके गलेमें पहनाते हैं। नरसीजी बार-बार स्वर लेते रहे, पर भगवान् माला नहीं पहनाए। नरसीको चिन्ता तो हुई कि अब तो मेरी पिटाई लगेगी। उसी समय भगवान्‌ने नरसीका रूप धारण किया और उस सेठकी पत्नीके पास आकर बोले – “यह पैसा ले लो और केदार­राग दे दो।” उसने अपने पतिको जगाया पर पतिने कहा – “तुम ही ले लो।” उसने पैसा ले लिया और पैसा लौटानेके प्रमाणके कागजके संग केदारराग लौटा दिया। भगवान्‌ने वह कागज नरसीकी गोदमें डाल दिया। फिर नरसीने केदर­रागमें गाया और भगवान्‌ने उठकर नरसीके गलेमें माला डाल दी। जय-जयकार होने लगी।

नरसीके पुत्र श्यामलदासका विवाह हुआ। भगवान्‌ने संपूर्ण दायित्व अपने हाथमें ले लिया। रुक्मिणीजी और भगवान् कृष्ण उपस्थित हुए। सारा दायित्व लेकर उनका निर्वहण करवा दिया। नरसी भगतने दिव्यातिदिव्य पदोंकी रचना की, जिनमें –

वैष्णवजन तो तेने कहिये जे पीर परायी जाणे रे।
पर दुख्खे उपकार करे तोये मन अभिमान न आणे रे॥

यह रचना बड़ी लोकप्रिय हुई। इसी प्रकार –

भूतळ भक्ति पदारथ मोटुँ ब्रह्मलोक माँ नाहीं रे।
पुण्य करी अमरापुरी पाम्या अंते चोराशी माहीं रे॥
हरिजन तेतो मुक्ति न मागे मागे जनमो जनम अवतार रे।
नित सेवा नित कीर्तन ओछव निरखवा नंदकुमार रे॥

और

आँख मारी उघडे त्याँ सीता राम देखूँ।
धन्य मारुँ जीवन कृपा एनी लेखूँ॥

इत्यादि प्रेरणा भरे पदोंसे संपूर्ण गुर्जर­भूमिको नरसीजीने भगवन्मय बना दिया। इस प्रकार नरसीजीके प्रभावसे संपूर्ण गुजरातमें वैष्णव­परम्पराकी गङ्गा बह चली।