॥ १०७ ॥
परमहंस बंसनि में भयो बिभागी बानरो॥
मुरधर खंड निवास भूप सब आज्ञाकारी।
राम नाम बिश्वास भक्तपदरजब्रतधारी॥
जगन्नाथ के द्वार दंडोतनि प्रभु पै धायो।
दई दास की दादि हुँडी करि फेरि पठायो॥
सुरधुनी ओघ संसर्ग तें नाम बदल कुच्छित नरो।
परमहंस बंसनि में भयो बिभागी बानरो॥
मूलार्थ – परमहंसोंके वंशमें वानर अर्थात् चारणवंशमें जन्म लेने वाले श्रीलाखाजी विभागी अर्थात् सहभागी बन गए। मुरधरखण्डमें लाखाजीका निवास था। सभी राजा इनकी आज्ञाका पालन करते थे। इन्हें रामनामपर विश्वास था। भक्तके चरणकी रजमें ही इन्होंने व्रतधारण किया था। एक बार जगन्नाथजीके द्वारपर दण्डवत् करते हुए ये सात सौ कोस तक चले गए। भगवान्ने सोचा कि अब तो ये थक गए होंगे। भगवान्ने पालकी भेजी, पर लाखाजी नहीं आए। भगवान्ने फिर पालकी भेजी। अन्तमें लाखाजीको लगा कि भगवान्की आज्ञा है, फिर ये पालकीपर आए। भगवान्ने इन्हें प्रेमसे हृदयसे लगाया, और कहा – “कुछ ले लो।” इन्होंने कुछ लेना स्वीकारा नहीं। तब भगवान्ने इनकी प्रशंसा की और एक भक्तको प्रेरणा करके इनके लिये एक हुंडी कर दी। भगवान्ने कहा – “जाओ! इसे छुड़ाकर अपनी बेटीका विवाह कर लेना।” जिस प्रकार सुरधुनी अर्थात् गङ्गाजीके संबन्धसे कुच्छित अर्थात् मलिन जलवाला गंदा नाला भी अपने नामको बदलकर गङ्गाजी ही हो जाता है, उसी प्रकार चारणकुलमें उत्पन्न हुए श्रीलाखाजी भी गङ्गाजल जैसे संतोंके संपर्कसे अपने पूर्व नामको छोड़कर परमहंस परिव्राजकोंकी श्रेणीमें आ गए।
लाखाजीने वैष्णवधर्मका पालन किया। लोकमत और वेदमतका पालन करते हुए उन्होंने भगवान्के चरणोंमें दिव्य विश्वास किया।