पद १०५


॥ १०५ ॥
हरि के संमत जे भगत तिन दासन के दास॥
नरबाहन बाहन बरीस जापू जैमल बीदावत।
जयंत धारा रूपा अनुभई उदा रावत॥
गंभीरे अर्जुन जनार्दन गोबिँद जीता।
दामोदर साँपिले गदा ईश्वर हेम बिनीता॥
मयानंद महिमा अनंत गुढ़ीले तुलसीदास।
हरि के संमत जे भगत तिन दासन के दास॥

मूलार्थ – जो भक्त भगवान्‌के सम्मत हैं, मैं उनके दासोंका भी दास हूँ। उनमेंसे (१) श्रीनरवाहनजी (२) श्रीवाहन बरीसजी (३) श्रीजापूजी (४) श्रीजयमलजी (५) श्रीबीदावतजी (६) श्रीजयन्तजी (७) श्रीधाराजी (८) श्रीरूपाजी (९) श्रीअनुभवीजी (१०) श्रीउदा रावतजी (११) गम्भीरे स्थानपर विराजमान श्रीअर्जुनजी (१२) श्रीजनार्दनजी (१३) श्रीगोविन्दजी (१४) श्रीजीताजी (१५) इसी प्रकार साँपिले स्थानपर श्रीदामोदरजी (१६) श्रीगदाधरजी (१७) श्रीईश्वरजी (१८) विनम्र श्रीहेमजी (१९) अनन्त महिमा वाले श्रीमयानन्दजी (२०) गुठीले स्थानपर विराजमान श्रीतुलसीदासजी – ये श्रीभगवान्‌के सम्मत भक्त हैं, मैं इनके दासोंका भी दास हूँ।