पद १०४


॥ १०४ ॥
कलिजुग जुवतीजन भक्तराज महिमा सब जानै जगत॥
सीता झाली सुमति सोभा प्रभुता उमा भटियानी।
गंगा गौरी कुँवरि उबीठा गोपाली गनेसुदे रानी॥
कला लखा कृतगढ़ौ मानमति सुचि सतभामा।
यमुना कोली रामा मृगा देवादे भक्तन बिश्रामा।
जुग जीवा कीकी कमला देवकी हीरा हरिचेरी पोषै भगत।
कलिजुग जुवतीजन भक्तराज महिमा सब जानै जगत॥

मूलार्थ – कलियुगमें ये श्रेष्ठ माताएँ और युवतियाँ भक्तोंमें सुशोभित हुईं, और भक्तोंकी राजा बन गईं। इनकी महिमा सारा संसार जानता है। ये हैं – (१) पीपाजीकी धर्मपत्नी सीता सहचरीजी (२) झालीजी, जो रैदासजी महाराजकी शिष्या थीं (३) सुमतिजी (४) सोभाजी (५) प्रभुताजी, जो रैदासजीकी धर्मपत्नी थीं (६) भटियानी उमाजी (७) गंगाजी (८) गौरीजी (९) कुँवरीजी (१०) उबीठाजी (११) गोपालीजी और (१२) गणेशदेईजी रानी अर्थात् महारानी गणेशदेवीजी (१३) श्रीकलाजी (१४) श्रीलखा माताजी (१५) कृतगढ़में विराजमान श्रीमानमतीजी (१६) पवित्र श्रीसत्यभामाजी (१७) यमुनाजी (१८) कोलीजी (१९) रामाजी (२०) मृगाजी और (२१) भक्तोंको विश्राम देने वालीं देवादेजी (२२-२३) दोनों जीवाजी (२४) कीकीजी (२५) कमलाजी (२६) देवकीजी (२७) हीराजी – ये सब भगवान्‌की सेविकाएँ थीं, जिन्होंने भक्तोंकी सेवाकी थी।

प्रभुताजीके लिये कहा जाता है कि एक बार संत­मण्डली इनके घर आ गई। घरमें कुछ नहीं था, तो अपनी साससे इन्होंने यह कहा – “अपनी स्वर्णकी खुमैल अर्थात् एक अलंकार­विशेष मुझे दे दीजिये। थोड़ी देरमें दे दूँगी।” वे वही आभूषण ले आईं और लाकर उन्होंने अपने पति रैदाससे कहा – “इसे बेचकर संतोंकी सेवा कर ली जाए।” संत­सेवा तो हो गई। सास इनकी बहुत दुष्ट थी, वह माँगने लगी। इनके पास था नहीं। उसने इन्हें कोठरीमें बंद कर दिया, ये रात-भर बंद रहीं। तब भगवान् स्वयं रैदासजीका रूप धारण करके आए, और प्रभुताजीकी सासको भगवान्‌ने वो पूर्व खुमैल लाकर दे दी। अन्तमें जब प्रातःकाल इनको सासने खोला, इन्होंने पूछा – “कैसे खोला?” तो सासने कहा – “खुमैल मुझे मिल गई है, इसलिये मैंने खोल दिया।” रैदाससे पूछा, रैदासने कहा – “मैं तो कुछ जानता नहीं।” प्रभुताजी जान गईं कि मेरे प्रभुकी ही यह लीला है।

महारानी गणेशदेवीजी महाराज मधुकर साहजीकी पत्नी थीं। इन्होंने स्वयं ओरछामें राम राजाको ला दिया था, इन्हींकी तपस्यासे भगवान् प्रसन्न होकर सरयू मातामें स्नान करते समय इनकी गोदमें आ गए थे। प्रत्येक पुष्य नक्षत्रमें भगवान् चलते थे। लाते-लाते ये मोतीमहल तक आईं, उसी समय पुष्य नक्षत्र समाप्त हो गया, भगवान् वहीं रुक गए।