पद ०९२


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उत्कर्ष तिलक अरु दाम को भक्त इष्ट अति ब्यास के॥
काहू के आराध्य मच्छ कछ सूकर नरहरि।
बामन फरसाधरन सेतुबंधन जु सैलकरी॥
एकन के यह रीति नेम नवधा सों लाये।
सुकुल सुमोखन सुवन अच्युत गोत्री जु लड़ाये॥
नौगुन तोरि नुपुर गुह्यो महँत सभा मधि रास के।
उत्कर्ष तिलक अरु दाम को भक्त इष्ट अति ब्यास के॥

मूलार्थउत्कर्ष अर्थात् श्रेष्ठता, दाम अर्थात् कण्ठी, नरहरि अर्थात् नरसिंह, फरसाधरन अर्थात् श्रीपरशुरामजी, सेतुबंधन अर्थात् भगवान् राम, सैलकरी अर्थात् पर्वतधारी गोवर्धनधारी भगवान् श्रीकृष्ण। श्रीव्यासजीके जीवनमें तिलक और कण्ठीका उत्कर्ष था, उन्हीं दोनोंकी श्रेष्ठताका वे चिन्तन करते रहते थे। और सबको उन्होंने अपकृष्ट अथवा निकृष्ट माना, और तिलक और कण्ठीको उत्कृष्ट माना। उनके लिये उनके भक्त अत्यन्त इष्ट थे। कुछ लोगोंके आराध्य होते हैं मत्स्य, कच्छप, भगवान् शूकर, नरसिंह, वामन, परशुरामजी, सेतुबन्धन­कारी भगवान् श्रीराम और गोवर्धन­धारी भगवान् श्रीकृष्ण। कुछ लोगोंकी यह रीति होती है कि वे नवधा भक्तिमें मन लगाए रहते हैं, अर्थात् श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन – इन नौ प्रकारकी भक्तियोंमें अपने मनको लगाते हैं और इन्हींके द्वारा भगवद्भक्तिका अभ्यास करते हैं। परन्तु श्रीसुमोखन शुक्लके पुत्र श्रीव्यासजीने तो सदैव अच्युत गोत्री अर्थात् वैष्णवोंको ही लाड़ लड़ाया अर्थात् दुलराया। संतोंकी सभाके बीच रासमें जब रास करते-करते श्रीलाड़लीजीके चरणका नूपुर टूट गया, तब उन्होंने सबके देखते-देखते अपने यज्ञोपवीतको तोड़कर उसीसे नूपुरको गूँथ दिया। अर्थात् रासको यथावत् होने दिया और अपने यज्ञोपवीतकी चिन्ता नहीं की। उन्होंने अपना सब कुछ राधाजीके चरणोंमें समर्पित कर दिया।