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आसुधीर उद्योत कर रसिक छाप हरिदासकी॥
जुगल नाम सों नेम जपत नित कुंजबिहारी।
अवलोकत रहें केलि सखी सुख के अधिकारी॥
गान कला गंधर्ब स्याम स्यामा को तोषैं।
उत्तम भोग लगाय मोर मर्कट तिमि पोषैं॥
नृपति द्वार ठाढ़े रहें दरसन आसा जास की।
आसुधीर उद्योत कर रसिक छाप हरिदास की॥
मूलार्थ – श्रीस्वामी हरिदासजीके गुरुदेवका नाम था आशुधीर। इसीलिये नाभाजीने कहा कि आसुधीर उद्योत कर अर्थात् श्रीहरिदासजी महाराज आशुधीरके यशको प्रकाशित करने वाले हुए। इनकी रसिक छाप थी अर्थात् सब लोग इनको रसिकजी कहते थे। श्रीहरिदासजीका युगलनामसे नेम था अर्थात् सतत युगलनामका ही वे चिन्तन करते थे, सदैव कुञ्जबिहारीजीको जपते रहते थे। ये निधिवन और सेवाकुञ्जमें श्रीयुगलसरकारकी मधुर क्रीडाओंको निहारा करते थे। हरिदासजी सखीसुखके अधिकारी थे। उन्होंने दोनों (श्यामा और श्याम)के एक ही भावमें श्रीबाँकेबिहारीजीको प्रकट किया, जहाँ दोनोंका मिलित स्वरूप दिखाई पड़ता है। यह वही दृश्य है, जिसके लिये भागवतजीके दशम स्कन्धके इक्कीसवें अध्यायके सातवें श्लोकमें व्रजाङ्गनाओंने कहा था –
अक्षण्वतां फलमिदं न परं विदामः सख्यः पशूननुविवेशयतोर्वयस्यैः।
वक्त्रं व्रजेशसुतयोरनवेणु जुष्टं यैर्वा निपीतमनुरक्तकटाक्षमोक्षम्॥
(भा.पु. १०.२१.७)
अर्थात् “हे सखियों! नेत्रवान् प्राणियोंके नेत्रोंका यही एक फल है, कोई दूसरा यदि होगा तो उसे हम नहीं जानतीं। क्या फल है? यदि नेत्रवान् लोगोंने पशुओंको अर्थात् सामान्य जीवोंको अनुकूलतापूर्वक रासमण्डलमें प्रवेश कराते हुए व्रजेशसुतयोः अर्थात् व्रजेश वृषभानुकी पुत्री राधिका और व्रजेश नन्दजीके पुत्र श्रीकृष्णचन्द्रजीके वेणुसे युक्त, अनुरक्तोंपर कटाक्षमोक्ष करनेवाले मिलित मुखारविन्दको जिन्होंने नेत्रोंसे पिया है अर्थात् उस माधुरीका जिन्होंने अपने नेत्रोंसे पान किया है, उन्हींके नेत्र धन्य हुए, उन्हींको नेत्र प्राप्त करनेका फल मिला, और किसीको नहीं।” हरिदासजी महाराज गानकलामें तो गन्धर्वके समान थे। सभी लोग इस घटनाको जानते ही हैं कि हरिदासजीके शिष्य बैजू बावराने अकबरके प्रधान संगीतज्ञ तानसेनको अपने संगीतसे हराया था। श्रीहरिदासजी दिव्य गानकलाके द्वारा स्याम स्यामा अर्थात् श्रीराधाकृष्णको संतुष्ट करते थे। उसी प्रकार वे उत्तम भोग लगाकर मयूरों, वानरों और तिमि अर्थात् मछलियोंको पालते-पोसते थे। उनके दर्शनकी आशामें बड़े-बड़े राजे-महाराजे उनके द्वारपर घण्टों-घण्टों खड़े रहकर प्रतीक्षा करते रहते थे। श्रीहरिदासजी कभी-कभार दर्शन दे देते थे, नहीं तो उन्हें राजाओंसे मिलनेकी कोई आवश्यकता नहीं थी। ऐसे रसिकजी श्रीहरिदासजी आशुधीरका यश प्रकाशित करने वाले हुए, और नश्वर शरीर त्यागने के पश्चात् उन्हें परमपद भगवद्धाम प्राप्त हुआ।