पद ०९०


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हरिबंसगुसाईं भजन की रीति सुकृत कोउ जानिहै॥
राधाचरन प्रधान हृदय अति सुदृढ़ उपासी।
कुंज केलि दंपती तहाँ की करत खवासी॥
सर्बस महाप्रसाद प्रसिध ताके अधिकारी।
बिधि निषेध नहिं दास अननि उत्कट ब्रतधारी॥
ब्याससुवन पथ अनुसरे सोई भले पहिचानिहै।
हरिबंसगुसाईं भजन की रीति सुकृत कोउ जानिहै॥

मूलार्थश्रीहितहरिवंश गुसाईंजीकी भजनकी रीतिको कोई एक ही जान सकता है, सब नहीं जान सकते। इनके हृदयमें श्रीराधाजीके चरण ही प्रधान रूपसे विराजते थे। वे श्रीराधा­कृष्णके अत्यन्त सुदृढ़ उपासक थे। वे कुञ्जकेलिमें दम्पतीके दर्शन करते थे, और उन्हींकी सेवा किया करते थे। श्रीहितहरिवंश महाप्रभुने महाप्रसादको सर्वस्व माना था, और वे उसी महाप्रसादके अत्यन्त प्रसिद्ध अधिकारी थे। इनकी यह धारणा थी कि दासको विधि और निषेधका कोई प्रतिबन्ध नहीं होता। इन्होंने उत्कट अनन्य उपासनाका व्रत धारण किया था। व्यासनन्दन हितहरिवंश महाप्रभुके पथका जो अनुसरण करेंगे, वे ही भले पहचान सकते हैं, सबके बसकी बात नहीं है कि हितहरिवंशके भजनकी रीतिको जान सकें।

धन्य हैं हितहरिवंश महाप्रभु, जिन्होंने राधा­सुधा­निधि जैसा दिव्य ग्रन्थ लिखकर प्रिया-प्रियतमके आनन्दको जनताके समक्ष भी उजागर कर दिया।