पद ०८९


॥ ८९ ॥
संसार स्वाद सुख बांत ज्यों दुहुँ रूप सनातन तजि दियो॥
गौड़देस बंगाल हुते सबही अधिकारी।
हय गय भवन भँडार बिभव भूभुज अनुहारी॥
यह सुख अनित बिचारि बास बृंदावन कीनो।
यथालाभ संतोष कुंज करवा मन दीनो॥
ब्रजभूमि रहस्य राधाकृष्ण भक्त तोष उद्धार कियो।
संसार स्वाद सुख बांत ज्यों दुहुँ रूप सनातन तजि दियो॥

मूलार्थ – संसारके स्वाद और सुखको वमनकी भाँति दोनों श्रीरूप­गोस्वामी और श्रीसनातन­गोस्वामीने छोड़ दिया था। ये गौड़ देश अर्थात् बंगालमें एक नवाबके बहुत अच्छे, बहुत श्रेष्ठ अधिकारी (धनाध्यक्ष) थे, और इनके यहाँ हाथी, घोड़ा, भवन, धनका भण्डार, वैभव और श्रेष्ठ राजमहल – यह सब कुछ परिपूर्ण था। मानो ये साक्षात् राजा जैसे ही थे। एक दिन इनके धनके लेखा­योगमें चार आने घट रहे थे। बार-बार गणित करके भी इन्हें पूर्ण योग नहीं मिल रहा था। इन्हें प्यास लगी, और इन्होंने शर्बत माँगा, तो सेवकने आटा घोलकर दे दिया। ये पी गए, इन्हें यह नहीं ज्ञान रहा कि यह शर्बत है या आटा है। जब ज्ञान हुआ तो इनके मनमें आया – “हमने संसारके कार्यमें इतना मनको लगा दिया। यही मन यदि राधा­कृष्णके चरणोंमें लग जाता तो कितना कल्याण हो जाता।” ऐसा सोचकर दोनों भाइयोंने संसारके स्वाद और सुखको वमनकी भाँति त्याग दिया। दोनों वृन्दावन आए और उन्होंने इस संसार­सुखको अनित्य मानकर वृन्दावनमें निवास किया। जो मिला उसीमें उन्होंने संतोष किया। भगवान्‌के कुञ्ज और करवा अर्थात् जल पीने वाले छोटेसे पात्रमें चित्त दे दिया। उन्होंने व्रजभूमिके रहस्योंका उद्धार किया और राधा­कृष्णके भक्तोंको संतोष दिया।

सनातन­गोस्वामीजीने भागवतजीपर बृहद्वैष्णव­तोषिणी टीका लिखी और उनके भ्रात्रीय जीव­गोस्वामीजीने वैष्णवतोषिणी टीका लिखी। रूप­गोस्वामीजीने भक्ति­रसामृत­सिन्धु, उज्जवल­नील­मणि जैसे रस­शास्त्रपर सुन्दर-सुन्दर ग्रन्थ लिखे, और ललित­माधव, विदग्ध­माधव आदि दिव्य नाटक भी लिखे। और दोनों भाइयोंने श्रीचैतन्य महाप्रभुसे श्रीराधा­कृष्ण­युगलमन्त्रकी दीक्षा ली। चैतन्य महाप्रभुने इन्हें दर्शन दिया, इनके हाथसे प्रसाद आरोगा, इन्हें अद्भुत आनन्द हुआ।

एक बार श्रीसनातन­गोस्वामीजी श्रीरूप­गोस्वामीजीसे मिलने आए। रूप­गोस्वामीजीके यहाँ कुछ भी नहीं था, उनके मनमें आया कि मैं आज अपने भ्राताश्रीको श्रीराधा­कृष्णको भोग लगाकार खीर पवाऊँ। उनका मनोरथ देखकर राधा­रानी स्वयं खीरके लिये दूध और चावल लेकर आईं। श्रीरूप­गोस्वामीजीने अद्भुत प्रसाद बनाया और सनातन­गोस्वामीजीको पवाया। सनातन­गोस्वामीने कहा – “रूप! इतना सुन्दर स्वाद तो भौतिक अन्नमें नहीं हो सकता। सही बताओ, क्या रहस्य है?” उन्होंने बता दिया कि मैंने मनोरथ किया और लाड़लीजीने लाकर दे दिया। तब सनातन­गोस्वामीजीने रूप­गोस्वामीको बहुत डाँटा – “तुमने मेरे लिये राधाजीको इतना कष्ट दे दिया?” धन्य हैं वे भक्त जिनका मनोरथ पूर्ण करनेके लिये स्वयं श्रीलाड़ली­लालजी प्रस्तुत रहते हैं।