॥ ८७ ॥
ब्रजभूमि उपासक भट्ट सो रचि पचि हरि एकै कियो॥
गोप्य स्थल मथुरामंडल जिते बाराह बखाने।
ते किये नारायन प्रगट प्रसिध पृथ्वी में जाने॥
भक्तिसुधा को सिंधु सदा सत्संग सभाजन
परम रसग्य अनन्य कृष्णलीला को भाजन॥
ग्यान समारत पच्छ को नाहिन कोउ खण्डन बियो।
ब्रजभूमि उपासक भट्ट सो रचि पचि हरि एकै कियो॥
मूलार्थ – श्रीनारायणभट्ट जैसा व्रजभूमिका उपासक रच-सँवारकर विधाताने एक ही बनाया। वाराहपुराणमें मथुरामण्डलमें जितने गोप्य स्थल अर्थात् गोपनीय स्थल कहे गए हैं, उनको नारायणभट्टने प्रकट और प्रसिद्ध किया, जिन्हें पृथ्वीपर सभी लोग जानते हैं। नारायणभट्टजी भगवान्की भक्ति रूप अमृतके सागर थे। वे सत्संगका सदैव सम्मान करते थे और सत्संगमें सदैव उनका सम्मान किया जाता था। वे अनन्य परम रसज्ञ थे। नारायणभट्टजी कृष्णलीलाके पात्र थे। ज्ञानपक्ष और स्मार्तपक्षके खण्डनके लिये संसारमें नारायण भट्ट जैसा दूसरा कोई हुआ ही नहीं।