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बिट्ठलदास माथुर मुकुट भये अमानी मानदा॥
तिलक दाम सों प्रीति गुनहिं गुन अंतर धार्यो।
भक्तन को उत्कर्ष जनम भरि रसन उचार्यो॥
सरल हृदय संतोष जहाँ तहँ पर उपकारी।
उत्सव में सुत दान कियो क्रम दुष्कर भारी॥
हरि गोबिँद जय जय गुबिँद गिरा सदा आनंददा।
बिट्ठलदास माथुर मुकुट भये अमानी मानदा॥
मूलार्थ – श्रीविट्ठलदासजी महाराज माथुर मुकुट अर्थात् मथुरानिवासियोंके मुकुटमणि थे। ये अमानी होकर सबको सम्मान देते थे। श्रीविट्ठलदासजीको तिलक और कण्ठीसे अत्यन्त प्रीति थी और वे संतोंके गुणोंको गुणोंके भीतर ही छिपाकर रखते थे, अर्थात् संतके एक गुणके आधारपर दूसरे गुणका अनुमान कर लेते थे। जन्मभर इन्होंने भक्तोंके उत्कर्षका अपनी रसनासे उच्चारण अर्थात् गान किया। विट्ठलदासजीका हृदय अत्यन्त सरल था, उनके मनमें संतोष था, जहाँ-तहाँ वे परोपकार करते थे। एक बार तो उन्होंने महोत्सवमें अपने पुत्रको ही एक नटिनपर रीझकर दान कर दिया था। यह उनका दुष्कर कर्म था। एक नटिनने भगवान्का पद गाया तो रीझकर विट्ठलदासजीने पुत्र रंगीरायको दानमें दे दिया। जब रंगीरायकी शिष्या, जो राणाकी पुत्री थी, दुःखी हुई तब उन्होंने कहा – “फिर कोई उत्सव हो तो देखा जाएगा।” उत्सव हुआ, और राणाकी पुत्रीने पद गाया, तो नटिनने रीझकरके रंगीरायको उसे दे दिया। इस प्रकार बार-बार जब दान होता रहा, तो रंगीरायजीने कहा – “अब तो भगवान्ने मुझे स्वीकार कर लिया है, अब इस शरीरसे क्या लेना देना?” उन्होंने छोटी ही अवस्थामें अपना शरीर छोड़ दिया था। विट्ठलदासजी महाराज हरि गोविन्द जय जय गोविन्द इस प्रकार वाणीका उच्चारण करते थे। हरि गोविन्द जय जय गोविन्द – ऐसी वाणी संतोंको सदैव आनन्द देती रहती थी, और मथुरावासियोंके मुकुटमणि विट्ठलदासजी सदैव अमानी रहकर दूसरोंको सम्मान देने वाले हुए।