॥ ८३ ॥
रामदास परताप तें खेम गुसाईं खेमकर॥
रघुनंदन को दास प्रगट भूमंडल जानै।
सर्बस सीताराम और कछु उर नहिं आनै॥
धनुष बान सों प्रीति स्वामि के आयुध प्यारे।
निकट निरंतर रहत होत कबहूँ नहिं न्यारे॥
शूरवीर हनुमत सदृस परम उपासक प्रेमभर।
रामदास परताप तें खेम गुसाईं खेमकर॥
मूलार्थ – श्रीरामदासजीके प्रतापसे क्षेमगुसाईंजी सबका कल्याण करनेवाले हुए। ये क्षेमगुसाईंजी श्रीरघुनन्दनरामजीके अनन्य दास थे, यह प्रत्यक्ष रूपमें संपूर्ण संसार जानता था अर्थात् संपूर्ण संसार जानता है। श्रीक्षेमगुसाईं सीतारामजीको सर्वस्व मानते थे, उनको छोड़कर इन्होंने अपने हृदयमें किसीको नहीं धारण किया। भगवान्ने प्रसन्न होकर क्षेमगुसाईंजीको प्रसाद रूपमें अपना धनुष-बाण दे दिया था, उसीसे ये प्रेम करते थे और सतत उसकी सेवा करते थे। अपने स्वामी श्रीराम भगवान्के आयुध (धनुष-बाण) उन्हें बहुत प्रिय थे। वे भगवान्के निरन्तर निकट रहते थे, एक क्षणके लिये भी ये उनसे दूर नहीं हुए। ये क्षेमगुसाईंजी हनुमान्जीके समान शूरवीर, परम उपासक, और प्रेमसे परिपूर्ण रहा करते थे।