॥ ८२ ॥
बर्धमान गंगल गँभीर उभय थंभ हरिभक्ति के॥
श्रीभागवत बखानि अमृतमय नदी बहाई।
अमल करी सब अवनि तापहारक सुखदाई॥
भक्तन सों अनुराग दीन सों परम दयाकर।
भजन जसोदानंद संत संघट के आगर॥
भीषम भट अंगज उदार कलियुग दाता सुगति के।
बर्धमान गंगल गँभीर उभय थंभ हरिभक्ति के॥
मूलार्थ – श्रीवर्धमानजी और श्रीगंगलजी, ये दोनों भाई अत्यन्त गम्भीर थे और दोनों ही भाई भगवान्की भक्तिके दो स्तम्भ थे। इन्होंने श्रीभागवतजीका व्याख्यान करके अमृतमय भक्तिरसकी नदी बहा दी थी। इन्होंने संपूर्ण पृथ्वीको निर्मल किया। ये भक्तोंके तापको हरने वाले और उन्हें सुख देनेवाले थे। वर्धमानजी और गंगलजीके मनमें भक्तोंके प्रति अत्यन्त प्रेम था, और दीनोंपर वे सदा परम दयालु थे। जसोदानंद अर्थात् यशोदाजीको आनन्द देनेवाले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीका वे भजन करते थे। संतोंके संघटमें अर्थात् संतोंको इकट्ठा करके भोजन करानेमें, उनकी सेवा करनेमें, ये अत्यन्त चतुर थे। भीष्मभट्टजीके ये दोनों उदार पुत्र वर्धमानजी और गंगलजी कलियुगमें सबको सद्गति देने वाले हुए, और ये दोनों भाई भगवान् श्रीकृष्णकी भक्तिके दो स्तम्भ बन गए।