पद ०८१


॥ ८१ ॥
गिरिधरन रीझि कृष्णदास को नाम माँझ साझो दियो॥
श्रीबल्लभ गुरुदत्त भजनसागर गुन आगर।
कबित नोख निर्दोष नाथसेवा में नागर॥
बानी बंदित बिदुष सुजस गोपाल अलंकृत।
ब्रजरज अति आराध्य वहै धारी सर्बसु चित॥
सान्निध्य सदा हरिदासबर गौरश्याम दृढ़ ब्रत लियो।
गिरिधरन रीझि कृष्णदास को नाम माँझ साझो दियो॥

मूलार्थ – विट्ठलनाथजीके एक सेवक थे श्रीकृष्णदासजी, जो दीक्षाके क्रममें तो विट्ठलनाथजीके गुरुभाई थे। उन कृष्णदासपर प्रसन्न होकर गिरिधरन अर्थात् पर्वतको धारण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण­चन्द्रजीने अपने नाममें ही उनको साझो दियो अर्थात् भाग दे दिया। तात्पर्य यह है कि एक बार महात्मा सूरदासजीने कहा – “कृष्णदास, ऐसी कोई कविता सुनाओ जिसमें मेरी कविताकी छाया न हो।” कृष्णदासजीने चार-छः कविताएँ सुनाईं। सूरदासजीने बता दिया कि मेरे इस पदकी छाया इसमें है, इस पदकी छाया इसमें है। अन्तमें कृष्णदासजी बहुत दुःखी हुए, कुछ नहीं बोले और लेट गए। तब भगवान् कृष्ण­चन्द्रजीने एक कविता बनाकर एक पन्नेमें लिखकर कृष्णदासजीकी तकियाके नीचे रख दी, और उसमें कृष्णके साथ दास शब्द भी जोड़ा, अर्थात् आधा नाम भगवान् कृष्णका, आधा नाम कृष्णदासका। फिर सूरदासजीने जब सुना तो वे जान गए कि यह कविता कृष्णदासकी नहीं, भगवान् कृष्णकी ही है। फिर तो सूरदासजीने भगवान्‌की महिमाको प्रणाम किया। कृष्णदासजी श्रीवल्लभाचार्य गुरुदेव महाप्रभुके द्वारा दिये हुए भजनरसके सागर थे। वे गुणोंकी खान थे। उनकी कविताका प्रयोग अत्यन्त निर्दोष था। वे श्रीनाथजीकी सेवामें अत्यन्त चतुर थे। कृष्णदासजीकी वाणी विद्वानों द्वारा वन्दित थी और गोपालजीके सुयशसे अलङ्कृत थी। श्रीव्रजरज उनके लिये अत्यन्त आराध्य थी। वे उसीको अपने शरीरपर लगाते थे, और उसीके ध्यानको अपने चित्तका सर्वस्व मानते थे अर्थात् उन्होंने उसीको अपने चित्तमें सर्वस्व रूपमें धारण किया था। कृष्णदासजी सदैव हरिदासवर अर्थात् भगवान्‌के श्रेष्ठ भक्तोंके सान्निध्यमें रहते थे, और हरिदासवर अर्थात् हरिदासोंमें श्रेष्ठ गोवर्धनजीके सान्निध्यमें रहते थे। उन्होंने गौरश्याम अर्थात् भगवान् श्रीराधा­कृष्णके चिन्तनका दृढ़ व्रत लिया था।

श्रीमद्भागवतजीमें शुकाचार्यजीने गोवर्धनजीको भगवान्‌‌का श्रेष्ठ भक्त तथा हरिदासवर्य कहा है –

हन्तायमद्रिरबला हरिदासवर्यो यद्रामकृष्णचरणस्पर्शप्रमोदः।
मानं तनोति सहगोगणयोस्तयोर्यत्पानीयसूयवसकन्दरकन्दमूलैः॥

(भा.पु. १०.२१.१८)

व्रजाङ्गनाएँ कहती हैं – “हे अबलाओं! यह अद्रि (पर्वत) अर्थात् गोवर्धन हरिदासवर्य हैं, श्रेष्ठ हरिदास हैं, श्रेष्ठ भगवद्भक्त हैं।” हरिदास उद्धवजी हैं, हरिदास युधिष्ठिरजी हैं, और नरहरिदास प्रह्लादजी हैं, इन सबमें श्रेष्ठ हैं गोवर्धन, क्योंकि इनको भगवान् राधाकृष्णके चरणके स्पर्शसे प्रमोद प्राप्त हुआ है। ये हरिदासवर्य गोवर्धनजी ही अपने निर्झरके जलसे, सुन्दर घाससे, शयन करने योग्य कन्दराओंसे और कन्द-मूलसे गोगणोंके साथ श्रीराधा­कृष्णका सम्मान करते रहते हैं। अर्थात् श्रीराधा­कृष्णको जल पिलाते हैं, उनके विहारके लिये कन्दरा उपलब्ध कराते हैं और उनको कन्द-मूल खिलाते हैं, और गौओंको हरी-हरी घास चरनेके लिये उपलब्ध करा देते हैं। ऐसे गोवर्धनजीका कृष्णदासजीको निरन्तर सान्निध्य प्राप्त रहता है, अतः यहाँ सान्निध्य सदा हरिदासबर कहा गया।