पद ०८०


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(श्री)बिट्ठलेससुत सुहृद श्रीगोबर्धनधर ध्याइये॥
श्रीगिरिधरजू सरस सील गोबिंदजु साथहिं।
बालकृष्ण जस बीर धीर श्रीगोकुलनाथहिं॥
श्रीरघुनाथजु महाराज श्रीजदुनाथहिं भजि।
श्रीघनश्यामजु पगे प्रभू अनुरागी सुधि सजि॥
ए सात प्रगट बिभु भजन जग तारन तस जस गाइये।
(श्री)बिट्ठलेससुत सुहृद श्रीगोबर्धनधर ध्याइये॥

मूलार्थश्रीबिट्ठलेश अर्थात् श्रीविट्ठलनाथजीके सात पुत्रोंके रूपमें गोवर्धनधर श्रीकृष्ण­चन्द्रका ध्यान करना चाहिये। इनमेंसे – (१) शीलसे सुन्दर श्रीगिरिधरजू (२) उनके साथ श्रीगोविन्दजू (३) यशमें वीर और धीर श्रीबालकृष्णजू (४) और उसी प्रकार उन्हींके साथ श्रीगोकुलनाथजी (५) महाराज श्रीरघुनाथजी और (६) श्रीयदुनाथजी (७) और इसी प्रकार भगवान्‌के प्रेममें पगे हुए अनुरागी और सुन्दर बुद्धि वाले श्रीघनश्यामजी – इस प्रकार भजनके जगत्‌में ये सात विभु प्रकट हैं जो तारन अर्थात् संसारसे तारने वाले हैं। इनका उसी प्रकार यशोगान करना चाहिये। विट्ठलेशजीके इन सात पुत्रों अर्थात् गिरिधरजी, गोविन्दजी, बालकृष्णजी, गोकुलनाथजी, रघुनाथजी, यदुनाथजी और घनश्यामजी – इनके रूपमें गोवर्धनधर श्रीकृष्ण­चन्द्रका निरन्तर ध्यान करना चाहिये।

जैसा कि पहले कह आए हैं कि श्रीविट्ठलनाथजीने नन्दजीकी ही भाँति भगवान्‌को लाड़ लड़ाकर आनन्द लिया। तात्पर्य यह है कि विट्ठलनाथजीके यहाँ सात बालक थे, और सातोंमें पाँच-पाँच वर्ष पर्यन्त भगवान् कृष्णका आवेश था। इस प्रकार पैंतीस वर्ष बालकोंके साथ और अन्ततोगत्वा भगवान् कृष्णके साथ उन्होंने भगवदानन्द लिया। (१) गिरिधरजी (२) गोविन्दजी (३) बालकृष्णजी (४) गोकुलनाथजी (५) रघुनाथजी (६) यदुनाथजी (७) घनश्यामजी और अन्ततोगत्वा श्याम­सुन्दर श्रीकृष्ण­चन्द्रजी – इस प्रकार सतत विट्ठलनाथ गोस्वामीजीने भगवान्‌के वात्सल्यका आनन्द लिया। एक बार एक चूड़िहारिन चूड़ी बेचने आई। उस समय तक विट्ठलनाथजी सातों पुत्रोंका विवाह कर चुके थे। तो चूड़िहारिनसे उन्होंने सात बहुओंके लिये चूड़ियाँ क्रय कीं। अन्तमें राधा­रानीजीने कहा – “बाबा! आपने सात बहुओंके लिये तो चूड़ियाँ खरीदीं, मेरे लिये क्यों नहीं खरीदीं?” यह सुनकर विट्ठलनाथजीने पश्चात्ताप किया।