पद ०७९


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बिट्ठलनाथ ब्रजराज ज्यों लाड़ लड़ाय कै सुख लियो॥
राग भोग नित बिबिध रहत परिचर्या तत्पर।
सय्या भूषन बसन रचित रचना अपने कर॥
वह गोकुल वह नंदसदन दीच्छित को सोहै।
प्रगट बिभव जहँ घोष देखि सुरपति मन मोहै॥
बल्लभसुत बल भजन के कलिजुग में द्वापर कियो।
बिट्ठलनाथ ब्रजराज ज्यों लाड़ लड़ाय कै सुख लियो॥

मूलार्थविट्ठलनाथजी महाराजने श्रीव्रजराज नन्दजीकी ही भाँति लालजीको लाड़ लड़ाय कै अर्थात् लाड़ लड़ाकर सुख लिया। तात्पर्य यह है कि जैसे भगवान्‌को वात्सल्यभावसे नन्दजी दुलराया करते थे, उसी प्रकार श्रीविट्ठलनाथजीने श्रीनाथजीको लाड़ लड़ाकर अर्थात् दुलराकर सुख प्राप्त किया। भगवान्‌के राग-भोग सतत अनेक प्रकारके होते थे, अर्थात् निरन्तर नए-नए प्रकारसे छप्पन प्रकारका भोग विट्ठलजी भगवान्‌को लगाते थे। भगवान् श्रीनाथजीकी पूजामें विट्ठलेशजी महाराज निरन्तर तत्पर रहते थे, और भगवान्‌की शय्या, भगवान्‌के आभूषण और भगवान्‌के बसन अर्थात् वस्त्र – इन सबकी परिचर्या अपने हाथसे करते थे। वाह! विट्ठलनाथ दीक्षितजीके यहाँ वैसे ही गोकुल और वैसे ही नन्दलालजीके भवनकी शोभा थी जो भगवान् कृष्ण की द्वापर­लीलाके समय थी, और उस घोष अर्थात् गाँवमें सात-सात व्यूहोंके रूपमें प्रकट भगवान्‌को देखकर इन्द्रका भी मन मोहित हो जाता था। वल्लभाचार्य महाप्रभुके द्वितीय पुत्र विट्ठलजीने अपने भजनके बलपर कलियुगमें भी द्वापरका आनन्द ले लिया था। इस प्रकार श्रीविट्ठलेशजीने भगवान्‌को दुलारकर उसी प्रकार आनन्द लिया, जैसे नन्दबाबाने अपने लाल कृष्ण­चन्द्रको दुलारकर आनन्द लिया था।