पद ०७८


॥ ७८ ॥
अज्ञानध्वांत अंतःकरन दुतिय दिवाकर अवतर्यो॥
उपदेसे नृप सिंह रहत नित आज्ञाकारी।
पक्व बृच्छ ज्यों नाय संत पोषक उपकारी॥
बानी भोलाराम सुहृद सबहिन पर छाया।
भक्त चरनरज जाँचि बिसद राघव गुन गाया॥
करमचंद कश्यप सदन बहुरि आय मनो बपु धर्यो।
अज्ञानध्वांत अंतःकरन दुतिय दिवाकर अवतर्यो॥

मूलार्थ – अज्ञान रूप अन्धकारको नष्ट करनेके लिये मानो दूसरे सूर्यनारायणने ही अवतार ले लिया हो। श्रीदिवाकरजीने बहुत-से राजाओं और बहुत-से सिंहोंको उपदेश दिया। वे सब सदैव दिवाकरजीकी आज्ञाका पालन करते थे। दिवाकरजी फलसे लदे हुए पके वृक्षके समान झुककर संतोंका पोषण अर्थात् संतोंकी सेवा करते थे, और सबका उपकार करते थे। उनकी वाणीमें प्रायः भोलाराम भोलाराम शब्दका उच्चारण होता रहता था, अर्थात् वे सबको भोलाराम बोलते थे। सदैव सभी सुहृदोंपर उनकी छाया थी। दिवाकरजीने सदैव भक्तोंके चरणोंकी धूलि माँगकर श्रीरामके विशद अर्थात् परमोज्ज्वल गुणोंका यशोगान किया था। वे ऐसे व्यक्तित्वसंपन्न थे मानो कर्मचन्द्र रूप कश्यपके घरमें पुनः सूर्यनारायणने अपना छोटा-सा शरीर धारण कर लिया था अर्थात् कर्मचन्द्रके भवनमें श्रीदिवाकरजी मानो द्वितीय सूर्यके समान शरीर धारण किये थे।